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कारगिल विजय दिवस
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कितनी ही छब्बीस जुलाइयाँ इतिहास में फ़ना हो गईं, मग़र भारतीय जनमानस के अंतस्तल में जो यश बीसवीं सदी की आख़री छब्बीस जुलाई को प्राप्त है, वो अन्य के लिए दुर्लभ है।

तक़रीबन बारह सौ साल साल पहले, विश्व इतिहास के प्रसिद्ध “बाइजेंटाइन” साम्राज्य में ऐन छब्बीस जुलाई को ही बड़ा भारी “प्लिस्का युद्ध” छिड़ा था, किसको याद है? इस युद्ध से और दो सौ साल पहले, ठीक इसी तारीख़ को हुआ “सिफ़िन युद्ध” किसे याद है?

इस सबसे इतर, कारगिल युद्ध आपको याद है! ज़ाहिर है, ये आपके भारतीय होने का परिचायक है, आपकी आत्मा के भारतीय होने का चिह्न है। अब भले आप बुद्धिजीवी, वामपंथी, निष्पक्ष और जाने क्या क्या होने का अभिनय कर लें, किंतु फिर भी, छब्बीस जुलाई को प्लिस्का और सिफ़िन के स्थान पर कारगिल ही दिलो-दिमाग़ में बरसेगा!

सामूहिक चेतना का निर्माण करना स्याहियों के वश की बात नहीं। बलिदानो की एक सुदीर्घ शृंखला जनमानस के दिलों में तारीख़ों को टाँकती है। ठीक वैसे ही, कारगिल विजय दिवस भारतीय सैन्य इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है, किंतु सैकड़ों वीर योद्धाओं के रक्त और उनके लिए फूट पड़े अश्रुओं से भींजा हुआ!

युद्ध और पीड़ा का मेल विधाता की योजना है, समुद्र मंथन में प्रकटा हलाहल जैसे। किंतु युद्ध के समुद्र मंथन से विजय का अमृत भी फूट पड़ता है। कुलमिला कर, युद्ध की नियति ही यही है कि विजय का उल्लास पीड़ा की त्रासदी का आवरण ओढ़े आएगा।

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कारगिल युद्ध की आधिकारिक शुरुआत तीन मई को मानी जाती है और समापान छब्बीस जुलाई को!

पहली झड़प में हुई हानि, आक्रमण का प्रकार, प्रहार की मात्रा और मौजूदा हालात का ठीक ठीक अनुमान लगाने में कुछेक दिन का वक़्त लगता है। इन्हीं सब अन्वेषणाओं के पश्चात् हाईकमान इस नतीजे पर पहुँचता है कि ये कार्यवाही झड़प थी अथवा युद्ध की शुरुआत!

ठीक वैसे ही, कारगिल युद्ध की पहली झड़प दो मई को “श्योक” नदी के तट पर हुई थी। वस्तुतः ये लोहार प्रदेश (लद्दाख) से गांधार प्रदेश की दिशा में जाने वाली प्रचाकालीन “शोक” नदी है, रिवर ऑफ़ डेथ, जोकि “सिंधु” नदी में जा गिरती है।

श्योक झड़प के ऐन अगले दिल भारतीय ख़ेमा इस नतीजे पर पहुँचा कि ये कोई मामूली झड़प नहीं थी, बल्कि पाकिस्तान की ओर से सीधे सीधे युद्धक गतिविधि है। पूरे देश में मिलिटरी अलर्ट हुआ और दो लाख सैनिकों को अगले आदेश पर कारगिल जाने के लिए सचेत कर दिया गया।

अगली झड़प सात मई को लद्दाख में “सिंधु” नदी के किनारे बसे “बटालिक” क़स्बे में हुई। मारे गए पाकिस्तानियों की वेशभूषा मुजाहिद्दीनों के जैसी थी, मग़र उनका युद्ध कौशल प्रशिक्षित सेना जैसा था। इसकी दो ही संभावनाएँ थी, कि या तो मुजाहिद्दीनों को पाकिस्तानी आर्मी ने ट्रेनिंग दी है, या फिर पाकिस्तानी आर्मी मुजाहिद्दीनों जैसा रूप बना कर युद्धक कार्यवाही कर रही है।

ठीक ऐसी ही एक तीसरी मुजाहिद्दीन झड़प दस मई को “द्रास” क़स्बे में भी सामने आई! रिवायती तौर पर, हानि और अन्य कारणों की गणना के पश्चात् ग्यारह मई को वायुसेना का ऑपरेशन “सफ़ेद सागर” शुरू हुआ।

ध्यातव्य हो, कि ऐसे मुजाहिद्दीनी आक्रमण की कोई दिशा नहीं होती, जबकि रक्षा करने वाले पक्ष को अपनी दिशा आक्रमण के अनुसार तय करनी पड़ती है। इस तरह रक्षा पंक्तियों का निर्माण करने में पंद्रह मई तक पाकिस्तान ने भारत के आठ सौ वर्ग किमी को क़ब्ज़ा लिया, जिसमें कि मश्को, द्रास, ककसर, बटालिक और श्योक क्षेत्र थे।

पाकिस्तानी योजना ऐसी तीव्र रफ़्तार वाली थी कि क़ब्ज़ाए क्षेत्र में सेना की चौकियों तक निर्माण हो गया! ख़ैर, समूचा विश्व जानता है कि फिर किस तरह भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को युद्ध का शिक्षण दिया।

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भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तानी सेना को दिए गए उस बेहतरीन मिलिटरी लेसन का ज़िक्र आज भी कहीं हो, तो परवेज़ मुशर्रफ अपना माथा पकड़ लेते हैं। चूँकि जनरल परवेज़ की सैन्य चाहनाओं का किस्सा बड़ा दिलचस्प है।

ये क़िस्सा तब का है, जब कारगिल वॉर में भारत की घोषित विजय हो गयी थी, टाइगर और तोलिंग चोटियों पर तिरंगा लहरा रहा था, द्रास घाटी में पाकिस्तानी ख़ाकी पहने शवों की कीमत खाली कारतूसों जितनी भी नहीं थी। किंतु पाकिस्तान के जनरल परवेज़ चहुंओर अपनी विजय की डींगें हांकते थे।

उनदिनों का किस्सा है ये!

जनरल मुशर्रफ़ पब्लिक मीटिंग्स में ऑपरेशन "बद्र" को बेहद सफल करार देते थे। और अकेले में अफ़सोस किया करते थे। कभी कभी प्रेस कांफ्रेंसेज़ में सच भी उगल पड़ता था, लेकिन वो उसे दूसरे लहजे में कहते थे।

जब उनसे पूछा जाता, जनाब, आप दिल्ली तक नहीं पहुंच सके, ऐसा क्यों हुआ? तिस पर वे कहते, हमारे पास टिके रहने की तरकीबें तो थीं, मगर आगे बढ़ने की चीज़ें न थीं।

वे आगे कहते थे, अग़र मेरे पास भारतीय ज़मीनी सेना के सैनिक, इतालवी पायलट्स और ब्रितानी नाविक हों तो मैं दिल्ली तो क्या, इस समूचे जहाँ को जीत लूंगा। ऐसी थी उनकी सैन्य चाहनाएँ। वे उसी सेना के जनरल थे, जो उन्हें पसंद नहीं थी!

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वस्तुतः विश्व जिसे कारगिल युद्ध के नाम से जानता है, वो जनरल परवेज़ की एकल चाहनाओं का ऑपरेशन “बद्र” था। एक ऐसा ऑपरेशन जो पाकिस्तानी सेना मुजाहिद्दीनों के साथ मिलकर लम्बे समय तक लड़ना चाहती थी।

पाकिस्तान का व्यवहार भारत के प्रति एक “कंट्रोल फ़्रीक” बच्चे जैसा रहा है, जो पिता की हर हरकत पर चीखने चिल्लाने की शुरुआत करता है और पिता की बढ़िया मार खाकर सुस्त हो जाता है।

हर बरस की सर्दियों में लेह क्षेत्र से श्रीनगर लौट आने वाली दो ब्रिगेड्स को किसी कारणवश सन् सतानवे-अठानवे की सर्दियों में वापस नहीं बुलाया गया, तो पाकिस्तान का वही बचपना, इसबार वापसी क्यों नहीं? क्या आप हमपर आक्रमण करना चाहते हैं?

भारत ने प्रत्युत्तर में “द्रास” में एक और ब्रिगेड तैनात कर दी। सर्दियों का माहौल कुछ ऐसा होता है कि कश्मीर घाटी को “द्रास” से जोड़ने वाला दर्रा सबसे पहले खुल जाता है। यानी पाकिस्तान का भय, गर्मियाँ आते ही भारत आक्रमण करेगा!

उनदिनों के हमारे रक्षामंत्री श्री जार्ज फ़र्नांडिस भी कम तीखे नहीं थे। उन्होंने सन् अठानवे की सर्दियों में बंकर तोड़ने वाली मशीनों का परीक्षण करवा दिया, उन्हें “द्रास” में तैनात करने की घोषणा कर दी और लगातार कश्मीर के दौरे किए।

भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसीज ने ऐसी खबरें फैलाईं कि भारत ने हज़ारों की संख्या में स्नो-स्कूटर्स ख़रीदे हैं!

कुलमिला कर कहा जाए, तो बीसवीं सदी के आख़री तीन बरस भारतीय सेना के हर लिहाज़ से स्वर्णिम बरस थे! भला, ऐसी उन्नत मनोबल वाली सेना से जीतना पाकिस्तानी मुजाहिद्दीनों के लिए किस विधि संभव होता?

तो मेरे शब्दों की दुनिया के दोस्तो, आज का दिन उन वीरों की पुण्य-सुधियों के नाम, जो लड़े बर्फ़ के तूफ़ानों में। जब जब छब्बीस जुलाइयों का ज़िक्र होगा, तो प्लिस्का और सिफ़िन नहीं, “कारगिल” ही कौंधेगा, पीढ़ियों दर पीढ़ियों कौंधता रहेगा!

जय हिंद। जय हिंद की सेना।

✍️ Yogi Anurag