आरक्षणवादी "दलित राजनीति" के "बौद्धिक दिवालिएपन" का एक नमूना पेश हैं। इन बेटियों ने खेल के मैदान पर "खुली प्रतिस्पर्धा" में अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन किया। मुमकिन है इनके कोच या ट्रेनर "कथित सवर्ण" रहे हों या ना भी रहे हों। पर यह सच है कि उनकी क्षमताओं और प्रदर्शन, कीर्तिमान में "आरक्षण" की कोई जगह नहीं है। जबकि मिशनरी प्रयोजित "दलित राजनीति" खुली और "योग्यता आधारित प्रतिस्पर्धा" से भयभीत हो "आरक्षण" की गोद में दम तोड़ रही है। ना जाने कौन हैं इस "दलित दस्तक" पत्रिका के संपादक और पाठक ? पर जो भी हैं, वाकई हास्यास्पद ऒर विदूषक हैं।
मुझे लगता है, वामपन्थ के साथ प्रायोजित दलित राजनीति भी अंतिम सांस ले रही है।
हालांकि इन विषयों पर लिखता नहीं अब, क्योंकि यह राजनीति अपने अन्तरगर्भ के अंतर्विरोधों से खुद अपनी मौत मर रही है।