Parvesh Kumar's Album: Wall Photos

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*दूसरों पर टीका टिप्पणी करने से पहले, यदि आप अपने दोष देखें, और उन्हें दूर करें, तो आप अधिक सुखी रहेंगे।*
आपने मनुष्यों की यह मनोवृत्ति व्यवहार में देखी होगी, कि लोग दूसरों की जितनी चर्चा करते हैं, उन पर जितनी टीका टिप्पणी करते हैं, उतना अपने विषय में विचार नहीं करते, कि "हम कौन हैं? कहाँ से आए हैं, कहाँ जाएंगे? हमें क्या करना चाहिए, इत्यादि।"
*बहुत से लोग वर्षों तक इसी बहस में पड़े रहते हैं, कि "ईश्वर है या नहीं? परंतु अपने बारे में यह नहीं सोचते कि हम भी मनुष्य हैं या नहीं?"*
हम यह नहीं कहते, कि ईश्वर आदि विषयों पर सोचना नहीं चाहिए, या विचार विमर्श नहीं करना चाहिए। हम तो यह कहते हैं, कि ऐसे विषयों पर भी सोचना चाहिए, खूब सोचना चाहिए। परंतु उस से पहले स्वयं अपने विषय में यह अवश्य सोचना चाहिए, कि *"हम कौन हैं, कहां से आए हैं, हम संसार में क्यों आए हैं? यहाँ हमारा अधिकार कितना है, हमारा कर्तव्य क्या है? क्या हम अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं या नहीं? क्या यही हमारा पहला और अंतिम जन्म है, या इसके बाद कोई और भी जन्म होगा?"*
कहने को तो आप और हम मनुष्य हैं। "पर मनुष्य कहते किसे हैं," शायद इतना भी ठीक से नहीं जानते। *सिर्फ मनुष्य का शरीर धारण कर लेने मात्र से कोई व्यक्ति मनुष्य नहीं कहलाता। जैसे खिलौने के रूप में लकड़ी की गाय बना देने से वह वास्तविक गाय नहीं कहलाती। वह लकड़ी की गाय न तो चारा खाती है, न ही दूध देती है। सिर्फ नाम मात्र की गाय होती है।*
इसी प्रकार से केवल शरीर धारण कर लेने से कोई मनुष्य नहीं कहलाता। *वेदों के अनुसार, वास्तव में मनुष्य तो वही कहलाता है, जो मनन करके, विचार करके काम करे। अपने कर्तव्य का गंभीरतापूर्वक चिंतन करे। फिर उस कर्तव्य का पूरी शक्ति से पालन करे। बिना विचार किए, कोई काम न करे।*
वास्तविक मनुष्य तो वही है, जो पहले अपने संबंध में ऊपर लिखे प्रश्नों पर विचार करे। उन विचारों पर ठीक से आचरण करे। उसके बाद ईश्वर के संबंध में भी विचार करे। जैसा ईश्वर का सच्चा स्वरूप हो, उसको जानकर उसके आदेश निर्देश का पालन करे, तथा अपने जीवन को सफल बनाए।
अब हम विचार करते हैं कि मनुष्य का कर्तव्य क्या है? *वेदों और ऋषियों के अनुसार मनुष्य वही है, जो अपनी आत्मा के समान सबकी आत्मा को समझे। जैसे मुझे सुख अच्छा लगता है, ऐसे ही सबको सुख अच्छा लगता है। जैसे मैं अपने सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता हूं, ऐसे ही मैं दूसरों को भी सुख प्राप्त कराने के लिए प्रयत्न करूँ। जैसे मैं अपने दुख दूर करने का पूरा प्रयास करता हूं, ऐसे ही मैं दूसरों के दुखों को भी दूर करने का पूरा प्रयास करूँ। ऐसा सोचने और करने वाला व्यक्ति ही वास्तव में मनुष्य है। अन्यथा तो वह नाम मात्र का ही मनुष्य है, जैसे लकड़ी की गाय।*
तो वास्तविक मनुष्य, दूसरे दीन हीन कमजोर रोगी मनुष्यों की सहायता करे। जो मुसीबत में हैं, उन्हें मुसीबत से बाहर निकाले। उनकी मदद करे। यह मनुष्य का पहला कर्तव्य है। और यह सब कर्तव्य पालन करते हुए, फिर उसका दूसरा कर्तव्य यह भी है कि, वह ईश्वर का भी चिंतन करे, कि *ईश्वर है अथवा नहीं? हमारा ईश्वर के प्रति क्या कर्तव्य है? हम उसका पालन कर रहे हैं या नहीं? ईश्वर से हमें क्या क्या लाभ हो सकते हैं? क्या क्या हानियाँ हो सकती हैं।? उसके लिए हमें क्या करना होगा? इत्यादि.* सब विचार विमर्श करके फिर ईश्वर के प्रति कर्तव्य पालन करे। और उससे पूरा पूरा लाभ उठाए। संसार के जड़ पदार्थों रोटी कपड़ा मकान धन सम्पत्ति इत्यादि से भी पूरा लाभ उठाए। और जीवन के लक्ष्य मोक्ष को समझते हुए उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करे।
ऐसा करने से तो आप लोग सुखी रहेंगे। जीवन को सार्थक बनाएंगे। और सब दुखों से छूटकर ईश्वर के उत्तम आनंद (मोक्ष) को भी प्राप्त कर सकेंगे।
- *स्वामी विवेकानंद परिव्राजक*