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3. पर्यावरण - भोजन पैदा करने में वायु-जल-जमीन का प्रयोग होता है। ये मूलभूत संसाधन हैं। एक किलो सब्जी उत्पादन के लिये 120 लीटर, एक किलो फल के लिये 150 लीटर, एक किलो गेंहू के लिए 350 लीटर, दूध के लिये 480 लीटर और एक किलो मांस उत्पादन के लिये 5000 लीटर पानी, 6-7 किलो अनाज और 70 किलो चारा चाहिये। कहने का अभिप्राय यह है कि जितने जमीन-पानी से मांस पैदा किया जाता है, उसी जमीन-पानी से कई गुणा शाकाहार पैदा किया जा सकता है। कतल खानों से बहुत बड़ी मात्रा में वायु और जल प्रदूषित होते हैं। मांसाहार के लिये पाले जाने वाले जानवरो के मांस के लिये ट्रांसपोर्ट, पशुओं द्वारा उत्सर्जित मिथेन गैस का गणित लगायें, तो ग्लोबल वार्मिंग का लगभग 22-23 प्रतिशत मांसाहार के कारण है, तो मांसाहार पर्यावरण पर भारी बोझ डालता है।

4. सामाजिक - मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जीवन ठीक से चले, इसके लिये कुछ मर्यादाओं का पालन आवश्यक है। मर्यादा पालन के लिये मनुष्य का सहनशील, संयमी, सहयोगी, नम्र, दयालु, परोपकारी होना आवश्यक है। मांसाहार मनुष्य में क्रूरता, निर्दयता, स्वार्थ, तामसिकता, आक्रामकता, कठोरता, उग्रता जैसे समाज विरोधी स्वाभाव को बढ़ावा देगा, जिसमें सामाजिक ताने-बाने और मर्यादाओं पर दबाव बढ़ेगा, जिससे सामाजिकता कमजोर होगी। निर्दयी, कठोर, उग्र, तामसिक लोगों के समाज में रहना बड़ा कष्टदायक बन जाता है।

5. धार्मिक - विश्व में जितने भी मत-पंथ, सम्प्रदाय है, उतनी विचारधारायें एक-दूसरे से भिन्न हों, परन्तु मांसाहार की अनुमति किसी भी मत-पंथ-सम्प्रदाय में नहीं है। कोई मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा, प्रार्थना स्थल, मांसाहार का अनुमोदन नहीं देते, तो मांसाहार सभी मतों-पंथों-सम्प्रदायों की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध होने के कारण मनुष्य की धार्मिक भावना को क्षीण करता है। मांसाहारी व्यक्ति मांस खाने की प्रवृति के कारण भले ही कुछ मत-पंथों के क्रियाकलापों का सहारा लेते हों, पर उन मत-पंथों के धार्मिक ग्रन्थों में मांसाहार का सर्मथन कहीं नहीं है।

6. मनोवैज्ञानिक - यह एक व्यावहारिक तथ्य है कि मनुष्य वह नहीं होता, जो वह कहता है, अपितु वह होता है, जो वह करता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि कार्य का प्रभाव बहुत अधिक होता है। मांसाहारी व्यक्ति का मनोविज्ञान निर्दयी, कमजोर, तामसिक बन जायेगा, चाहे वह समाज, धर्म, परोपकार आदर्श आदि की कितनी ही बातें क्यों न करता रहे। किसी न किसी रूप में मांसाहारी की वृत्ति हिंसक व स्वार्थी बन जाती है। उदारता, परोपकार, दूसरों के दुःख-दर्द की संवेदना आदि विचार कमजोर पड़ते जाते हैं। कुल मिलाकर मानसिकता हिंसक पशुओं जैसी बनती चली जाती है। कोमलता, वात्सल्य, सौंदर्यबोध स्वभाव से हटते चले जाते हैं।

7. आध्यात्मिक - ईश्वर के प्रति कृतज्ञता, ईश्वरकृपा ध्यान, ईश्वर के समीप जाने की इच्छा अर्थात् ईश्वर चिन्तन और सभी जगह सभी प्राणियों को ईश्वरपुत्र सभी रचनाओं को ईश्वरकृत मानना, ये विचार सभी प्राणधारियों के प्रति प्रेमभाव, उनमें अपनी तरह ईश्वर का आवास मानना, आध्यात्मिक जीवन के आवश्यक अंग हैं। मांसाहारी जब मांस के लिये किसी जीव की हत्या करता है, तो उसके मस्तिष्क और हृदय से उपर्युक्त सभी भावनाओं, विचार, दृष्टि समाप्त हो जाती हैं। उसका स्वभाव हिंसक पशु जैसा बनना आरम्भ हो जाता है। एक मांसाहारी का आध्यात्मिक व्यक्ति होना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। मांसाहार और आध्यात्म सिद्धान्त रूप में विपरीत चीजें हैं। आध्यात्मिक जीवन होना मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है, यह केवल मनुष्य शरीर के माध्यम से ही सम्भव है, तो मनुष्य शरीर धारण करके मांसाहार द्वारा हिंसक पशुओं का व्यवहार करना, ईश्वर द्वारा मनुष्य रूपी शरीर मिलने के सौभाग्य को मूर्खतापूर्वक ठुकराने से भी बड़ी मूर्खता है।

मांसाहार का मनुष्य के लिये किसी भी दृष्टि से औचित्य नहीं बनता। विश्व स्तर पर स्पष्ट रूप से कोरोना ने मांसाहार को गलत सिद्ध कर दिया है, इतना कुछ स्पष्ट होने पर भी यदि मनुष्य आदत का गुलाम होकर मांसाहार करता है, तो इससे ज्यादा गिरी हुई स्थिति और क्या हो सकती है।

✍️ डाॅ. भूपसिंह
रिटायर्ड एसोशिएट प्रोफेसर, भौतिक विज्ञान
भिवानी (हरियाणा)