अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां
चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा
भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥ ३ ॥
मैं ही राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी हूँ । मैं उपासकों को उनके अभीष्ट वसु-धन प्राप्त कराने वाली हूँ ।
जिज्ञासुओं के साक्षात् कर्तव्य परब्रह्म को अपनी आत्माके रुपमें मैंने अनुभव कर लिया है । जिनके लिये यज्ञ किये जाते हैं, उनमें मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ । सम्पूर्ण प्रपञ्च के रुप में मैं ही अनेक-सी होकर विराजमान हूँ । सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर में जीवनरुप में मैं अपने-आपको ही प्रविष्ट कर रही हूँ। भिन्नभिन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में जो कुछ हो रहा है, किया जा रहा है, वह सब मुझ में मेरे लिये ही किया जा रहा है । सम्पूर्ण विश्व के रुपमें अवस्थित होने के कारण जो कोई जो कुछ भी करता है, वह सब मैं ही हूँ ।