नरेश भण्डारी's Album: Wall Photos

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सु-प्रभात

(((( भक्त चक्रिक भील ))))
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द्वापर में चक्रिक नामक एक भील वन में रहता था।
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भील होने पर भी वह सच्चा, मधुरभाषी, दयालु, प्राणियों की हिंसा से विमुख, क्रोधरहित और माता पिता की सेवा करने वाला था।
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उसने न तो विद्या पढ़ी थी, न शास्त्र सुने थे; किंतु था वह भगवान का भक्त। केशव, माधव, गोविन्द आदि भगवान के पावन नामों का वह बराबर स्मरण किया करता था।
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वन में एक पुराना मन्दिर था, उसमें भगवान की मूर्ति थी।
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सरलहदय चक्रिक को जब कोई अच्छा फल वन में मिलता, तब वह उसे चखकर देखता।
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यदि फल स्वादिष्ट लगा तो लाकर भगवान को चढ़ा देता और मीठा न होता तो स्वयं खा लेता।
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'जूठे फल भगवान को नहीं चढ़ाने चाहिये' उस भोले भक्त को यह पता ही नहीं था।
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एक दिन वन में चक्रिक को पियाल वृक्ष पर एक पका फल मिला।
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फल तोड़कर उसने स्वाद जानने के लिये उसे मुख में डाला, फल बहुत ही स्वादिष्ट था, पर मुख में रखते ही वह गले में सरक गया।
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सबसे अच्छी वस्तु भगवान को देनी चाहिये यह चक्रिक की मान्यता थी।
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एक स्वादिष्ट फळ उसे आज मिला तो वह भगवान का था, भगवान के हिस्से का फल वह स्वयं खा ले, यह तो बड़े दुःख की बात थी।
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दाहिने हाथ से अपना गला उसने दबाया, जिसमें फल पेट में न चला जाय। मुख में अँगुली डालकर वमन किया पर फल निकला नहीं।
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चक्रिक का सरल हदय भगवान को देने योग्य फल स्वयं खा लेने पर किसी प्रकार प्रस्तुत नहीं था।
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वह भगवान की मूर्ति के पास गया और कुल्हाड़ी से गला काटकर उसने फल निकालकर भगवान को अर्पण कर दिया।
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इतना करके पीड़ा के कारण वह गिर पड़ा। सरल भक्त की निष्ठा से सर्वेश्वर जगन्नाथ रीझ गये।
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वे श्रीहरि चतुर्भुज रुप से वहीं प्रकट हो गये और मन-ही-मन कहने लगेः-
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'इस भक्तिमान् मील ने जैसा सात्त्विक कर्म किया है, मेरे पास ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे देकर मैं इसके ऋणसे छूट सकूँ ?
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ब्रह्मा का पद, शिव का पद या विष्णु पद भी दे दूँ, तो भी इस भक्त के ऋण से मैं मुक्त नहीं हो सकता।'
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फिर भक्तवत्सल प्रेमाधीन प्रभु ने चक्रिक के मस्तक पर अपना अभय करकमल रख दिया।
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भगवान के कर-स्पर्श पाते ही चक्रिक का घाव मिट गया, उसकी पीड़ा चली गयी, वह तत्त्काल स्वस्थ होकर उठ बैठा।
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देवाधिदेव नारायण ने अपने पीताम्बर से उसके शरीर की धूलि इस प्रकार झाड़ी, जैसे पिता-पुत्र के शरीर की धूलि झाड़ता है।
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भगवान को सामने देख देख चक्रिक ने गदगद होकर, दोनों हाथ जोड़कर सरल भाव से स्तुति कीः-
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'केशव ! गोविन्द ! जगदीश ! मैं मूर्ख भील हूँ। मुझे आपकी प्रार्थना करनी नहीं आती, इसलिये मुझे क्षमा करो, मेरे स्वामी मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।
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आपकी पूजा छोड़कर जो लोग दूसरे की पूजा करते हैं, वे महामूर्ख हैं।'
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भगवान ने वरदान माँगने को कहा।
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चक्रिक ने कहाः- 'कृपामय जब मैंने आपके दर्शन कर लिये, तब अब और क्या पाना रह गया?
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मुझे तो कोई वरदान चाहिये नहीं बस, मेरा चित्त निरन्तर आप में ही लगा रहे, ऐसा कर दो।'
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भगवान् उस भील को भक्ति का वरदान देकर अन्तर्धान हो गये।
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चक्रिक वहाँ से द्वारका चला गया और जीवनभर वहीं भगवद्भजन में लगा रहा।
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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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