ये भारतीय सेना का भीष्म टैंक है, टू थाउजेंड टू मेड टी-नाइनटी-एस सीरीज।
यदि इस मशीन का टेक्निकल डिटेल फ्रेंच कर्नल जीन एस्टीन के सम्मुख आता, तो वे निश्चितरूप से नीम-बेहोशी में पहुंच जाते!
क्या इसे देखकर आपको वैसा प्रतीत होता है कि इसके पूर्वज ट्रैक्टर हैं? शायद किसी को भी वैसा प्रतीत न हो!
टैंक के पितामह को भी हरगिज़ यकीन न आता कि ये मशीन ट्रैक्टर और बन्दूक के ऐतिहासिक संयोजन की ही संतति है।
कर्नल जीन को, सन् चौदह के अगस्त में, फ्रेंच सरकार की ओर से बुलावा भेजा गया था। पचहत्तर एमएम बैरल के एक सार्वभौमिक हथियार के निर्माण का कार्य उनके जिम्मे दिया गया।
फ्रेंच सरकार के निर्देशों पर कार्य आरंभ हुआ तो तमाम विकल्प डस्टबिन में जा पहुंचे। अंत में केवल दो विकल्प बचे।
उनमें से पहला विकल्प ये कि रेलगाड़ी के इंजन पर बड़े आकार के बैरल फिट कर दिए जाएं। किन्तु ये कारगर नहीं था, चूंकि आवश्यक नहीं था कि हर युद्ध मोर्चे पर रेल-ट्रैक हों।
सो, अंतिम विकल्प के तौर पर, अमेरिकी अभियंता बेंजामिन हॉल्ट कर्नल जीन की प्रेरणा बने!
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हॉल्ट ने सन् चार में, कृषि कार्य हेतु प्रयोजने वाला ट्रैक्टर लांच किया था। उस मशीन ने वैसी प्रसिद्धि पाई थी कि उसका नाम हॉल्ट-ट्रैक्टर ही जाना गया।
कर्नल जीन ने अमेरिका के फ़्रांस की ओर झुकाव का लाभ उठाकर, सैकड़ों हॉल्ट-ट्रैक्टर्स मंगवा लिए और सन् पंद्रह की मई आते आते फ्रेंच कंपनी "श्नाइडर" ने टैंक निर्माण का कार्य आरंभ कर दिया!
इधर ब्रितानी सरकार द्वारा सन् पंद्रह की फ़रवरी में स्थापित की गई लैंडशिप कमेटी को सन् सोलह की जनवरी में सफलता मिली। पहले ब्रितानी टैंक का नाम था, मार्क फर्स्ट लैंडशिप।
और प्यार से इसे "बिग बिली" पुकारा गया!
किन्तु दोनों ही नाम युद्ध मोर्चे पर अप्रयोजित रहे। ट्रेंचवॉर की जाम स्थिति को तोड़ने के लिए निर्मित की गई मशीन का कोडनेम "टैंक" पुकारा गया।
ब्रितानी टैंक के जनवरी सोलह में आने के माह भर पश्चात् फ़रवरी सोलह में सीए-वन भी आ गया, पहला फ्रेंच टैंक!
और सितंबर सोलह में, पहली बार ब्रितानी मोर्चे की ओर से टैंक युद्ध में उतारे गए।
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आज के दौर में टैंक शब्द कितना सुप्रसिद्ध है। सदा से ऐसा नहीं था। एक दौर ऐसा भी था, जब आम नागरिक तो क्या, सैनिक भी इस टैंक नाम की चिड़िया से परिचित नहीं थे।
विपक्षी सेना के पास टैंक होने की जानकारी, युद्ध पत्रकार और सेनानायकों द्वारा मुनादी कर दी जाती थीं। वे अपनी सेना के समक्ष टैंक कप कुछ यों बयां करते थे, मानो कोई दैवीय चीज़ उतारी जा रही हो।
सन् सोलह के सितंबर का एक बयान है : "एक विशाल धूसर रंग की वस्तु, जोकि बेहद धीमे चलती है, टैंक कहलाती है!"
ये बयान किसी अनपढ़ खबरी का नहीं, बल्कि बेहद जहीन और पढ़े लिक्खे आदमी डोनाल्ड फ्रेजर का है। और दूसरा बयान सन् सत्रह का है, जर्मन अधिकारी हेंज गुडेरियन द्वारा :
"टैंक अकेला नहीं दीखता, एकसाथ किलोमीटर्स लंबी पङ्क्ति में दिखाई देते हैं!"
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इतिहास के फड़फड़ाते पन्ने बताते हैं कि लैंडशिप्स की पहली खेप उनचास की संख्या में निकली थी, जोकि मोर्चे पर पहुंचते पहुँचते बत्तीस की रह गई।
और उनमें से भी केवल पच्चीस ऐसे थे, जो अपना पहला फायर कर सके!
इस तरह की घनघोर असफलता के साथ शुरू हुआ, ट्रैक्टर और बन्दूक का संयोजन इस कदर सफल हुआ कि पहले विश्वयुद्ध में ब्रितानी और फ्रेंच सेना की ओर से साढ़े पांच हज़ार टैंक उतार दिए गए।
जबकि जर्मनी केवल बीस टैंक बना सका, केवल बीस!
किन्तु फिर भी, युद्ध अपराधी जर्मनी बना, वर्साय संधि जर्मनी पर थोपी गई। योगी अनुराग जो उस दौर के पत्रकार होते, तो यही हेडलाइन दी जाती :
"वर्साय संधि फाउंटेन पेन नहीं बल्कि लैंडशिप के बैरल की नोंक से लिखी गई थी!"
जर्मनी के संसाधानों पर इस तरह की सामूहिक लूट की गई कि आवाम को एक ब्रेड का पैकेट खरीदने के लिए बैलगाड़ी भर कर मार्क नोट चाहिए होते थे।
भला, कौनसी कौम होगी जो वैसी स्थिति में उत्तेजित न हो जाए? ख़ैर, इसपर फिर कभी बात होगी, फ़िलहाल थलसेना के लैंडशिप्स पर बात हो!
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प्रथम विश्वयुद्ध बंद हो गया, किन्तु लैंडशिप्स का विकास अंदरखाने चलता रहा!
चूंकि दुनिया जानती थी कि जबतक हवा से जमीन पर मार करने वाले हवाई हथियार नहीं आएंगे, तब तक युद्धभूमि में टैंक का ही शासन रहेगा।
और कहा भी जाता है कि प्रथम विश्वयुद्ध ख़त्म नहीं हुआ था, इसी कारण से तो दूसरा करना पड़ा। दूसरे की उद्देश्य ही यही था कि पहला युद्ध ख़त्म हो।
सो, ये सब लोग अपने अपने देशों में टैंक निर्माण करते रहे। जासूसों के जरिए एकदूजे की खबर लेते और अदृश्य प्रतिस्पर्धा करते!
इसका परिणाम ये हुआ कि डेढ़ हज़ार ब्रितानी टैंक, तीन हज़ार फ्रेंच और साढ़े तीन हज़ार नाज़ी टैंक जमीं पर आ चुके थे। अपने हुक्मरानों के इशारों का इंतज़ार करते, दुनिया को दहलाने के लिए तैयार टीनशेड्स में खड़े थे।
किन्तु इन सबसे ज्यादा महत्त्वाकांक्षी सोवियत संघ निकला। स्तालिन के झंडे तले बीस हज़ार लैंडशिप्स खड़े थे, अकेले सोवियत मेड!
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ट्रैक्टर और बन्दूक के इस संयोजन को वैसा यश मिलेगा, ये न तो इंजीनियर हॉल्ट ने सोचा होगा और न कर्नल जीन ने!
किन्तु उन दोनों के साझा प्रयासों से संभाव्य इस मशीनी कॉम्बिनेशन ने थलसेना के युद्ध इतिहास को निश्चित रूप से बदल डाला है।
तमाम देशों की थलसेनाओं में लैंडशिप्स की घुसपैठ टैंक प्लाटून्स के जरिए हुई। कालान्तर में टैंक कम्पनियाँ बनीं और फिर बटालियंस। जब बटालियंस भी कम लगीं तो टैंक रेजीमेंट्स तक बन गए।
अस्तु, थलसेना व लैंडशिप्स का ये चिर-गठबंधन आज तलक क़ायम है!
✍️Yogi Anurag
मथुरा, उत्तर प्रदेश
[ चित्र : भारतीय टैंक टी-नाइनटी-एस भीष्म। ]
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