समग्र बंगभूमि “ट्रेंचवॉर” की चपेट में आ चुकी है. यानी कि बंगाल में जो भी सिर उठाएगा, वो मारा जाएगा!
मुलायम गद्दों पर सो बैठकर इस लेख को पढ़ने वाले दोस्तो, ट्रेंच भौतिक हो या वैचारिक, उसमें जिए जा रही ज़िन्दगी बड़ी खौफनाक होती है.
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इतिहास में हुए तमाम “ट्रेंचवॉर्स” के आंकड़े बताते हैं कि यदि युद्ध न भी हो, तब भी प्रतिमाह हज़ारों कैजुअल्टी तय हैं.
चूंकि ट्रेंच में केवल विपक्षी सेना ही नहीं बल्कि जूँ और चूहे जैसे ज़ीव भी आपकी मृत्यु का कारण बन सकते हैं.
साथ ही, ट्रेंच में झुकी रीढ़ और सिर के साथ एक एक पल बिताना, एक एक साँसों की गिरह बुनना बड़ा पीड़ादायक होता है. सो, जिन लोगों से ये पीड़ा नहीं ली गई, उन्होंने सिर उठाया और रीढ़ सीधी की.
और उनके सिरों पर विपक्षी बंदूकों की आग व कैमरों की फ़्लैश, एकसाथ पड़ी. उन मनहूस फ़्लैशों से बनी कहानियों में आपने अन्दाज लगाया कि वाकई बंगभूमि कितनी पीड़ा में है!
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नभ, जल और थल में होने वाले युद्धों के इतर भी, तमाम युद्धविधाएं मौजूद हैं. “ट्रेंचवॉर” उनमें से एक है. ट्रेंच शब्द का तात्पर्य होता है : खंदक, गड्ढा या खाई.
जैसा कि शब्दार्थ से स्पष्ट है, इसमें सैनिकों के रक्षार्थ खंदक बनाई जाती हैं. खंदक की गहराई तकरीबन आठ से दस फीट होती है. सैनिकों के नेत्रों और बंदूकों के बैरल्स को उस ऊंचाई तक पहुंचाने में मिट्टी के बोरे सहायक होते होते हैं.
”ट्रेंचवॉर” की आवश्यक शर्तें हैं कि रीढ़ सीधी न होने पाए और सिर न उठने पाए. यही अक्रियता व रीढ़विहीता के युद्ध, अक़्सर ही युद्धरत लोगों को स्टेलमेट की स्थिति में ले जाते हैं.
स्टेलमेट यानी कि जिच की स्थिति, एक मृत-ताले को खोलने में होने वाले गतिरोध की स्थिति!
”ट्रेंचवॉर” के विषय में हिंदी भाषा का एकमात्र लिखित दस्तावेज "उसने कहा था" है, श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी की लिखी पहली हिंदी प्रेमकथा!
इस कथा में, ब्रितानी साम्राज्य की ओर से प्रथम विश्वयुद्ध में सम्मिलित होने वाले भारतीय सैनिकों की यथास्थिति का चित्रण किया गया है.
अन्योक्तियों में लिख रहा हूँ, किन्तु ठीक वैसी ही जिच स्थिति और वैसे ही गतिरोध की निर्मिति आज बंगाल में हो गई है!
और इस तरह की स्थिति के लिए केवल ममता बनर्जी नहीं, केवल साढ़े तीन दशक तक चला कम्युनिस्ट शासन भी नहीं और केवल बंगभूमि कि प्रगतिशील वैचारिक शक्ति भी ज़िम्मेदार नहीं.
बल्कि इस स्थिति का निर्माण आज़ादी के समय से ही लगातार चल रहा है!
ये स्थिति अपनी अंतिम परिणिति पर बीती सदी में ही पहुँच जाती, किन्तु बांग्लादेश के निर्माण ने काफी हद तक बंगाल के डेमोग्राफिक रेश्यो को संतुलित किया.
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एक्चुअली, जब देश का बंटवारा हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर ही गया था तो भला तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं ने आधे मुस्लिमों को हिंदुस्तान में रोके रखा?
इस मुआमले में, पकिस्तान के हुक्मरान बुद्धिमान प्रतीत होते हैं!
उन्होंने भले कुछ हिंदुओं को पाकिस्तान में ही रहने की इजाज़त दी, किन्तु उनका मताधिकार छीन लिया. वे किसी भी तरह के चुनाव में वोट नहीं दे पाते हैं.
और यही कारण है कि पाकिस्तान का कोई नेता हिंदुओं का पक्षधर नहीं. हिंदुओं की किसी गलती पर पर्दा डालना तो दूर, उनकी बेहतरी पर भी कोउ नेता बात करने को तैयार नहीं.
चूंकि वैसा करने से वो अपनी कौम का विरोध प्राप्त करेगा और हिन्दू वोट भी नहीं मिलने वाला!
जबकि भारत के हिन्दू समाज से आने वाले नेता खुलकर मुस्लिमों का समर्थन करते हैं, उनकी गलतियों पर पर्दा डालते हैं और अपने समाज की ख़िलाफ़त से भी नहीं डरते.
वे जानते हैं कि इस ख़िलाफ़त का कंपनसेशन उनके पास है. मुस्लिम पक्षकार हो जाने से मुस्लिम मत उन्हें प्राप्त होंगे. वहीं हिन्दू पक्षकार होने से ये आवश्यक नहीं कि सभी हिन्दू मत प्राप्त हों!
ये पूरी कहानी है कि क्यों बंगाल के तमाम विक्टिम हिन्दू हैं, फिर भी किसी अपराधी पर कोई कार्यवाही नहीं!
दो धार्मिक समुदायों के बीच इन वैचारिक ट्रेंच को उठाने के पीछे कहीं न कहीं पॉलिटिकल सिस्टम तो उत्तरदायी है ही, साथ ही हिंदुओं की मत-एकता में कमी और अपनी इस एकता का मूल्य न समझ पाने की भ्रमित स्थिति भी एक बड़ा कारण है.
सो, अब बंगभूमि के हिंदुओं के पास ऐसी स्थिति में मानसिक ट्रेंच में बस जाने के अलावा कोई उपाय नहीं!
बीती सदी हुए प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात्, जब ट्रेंच की कुल लंबाई नापी गई तो संसार भौचक रह गया था. पश्चिमी मोर्चे पर पांच सौ मील और पूर्वी मोर्चे पर आठ सौ मील की ट्रेंच थीं.
किन्तु इस बार ये आंकड़ा बहुत पीछे छूट गया है!
फ़िलहाल, जिस स्थिति पर हम बात कर रहे हैं, उस स्थिति में भारतीय राज्य बंगाल और बांग्लादेश की सीमा ढाई हज़ार मील की है.
क्या आप इतनी लंबी ट्रेंच बना सकेंगे? क्या आप इतनी लंबी ट्रेंच में प्रतिमाह होने वाली कैजुअल्टीज़ को अफ़्फोर्ड कर पाएंगे? यदि हां, तो ठीक है सरकार बहादुर, जैसा चलता है, वैसा चलने दीजिए.
और यदि नहीं अफ़्फोर्ड कर सकते, तो ब्रितानी तरीका अपनाइए. बंगभूमि को वो तोहफा दीजिए, जिसका उद्भव ही ट्रेंच को तोड़ने के लिए हुआ है, जिसका नाम ही ट्रेंच से ही प्रेरित कोडवर्ड में पुकारा गया था.
इतिहास के इस तोहफे को, संसार “टैंक” के नाम से जानता है, एक ब्रितानी कोडवर्ड जोकि नाम की भांति प्रसिद्धि पा गया. बंगभूमि की तमाम ट्रेंच, अब इस तोहफे का इंतज़ार कर रही हैं!
इति.
Yogi Anurag
[ चित्र : विश्वयुद्ध के किसी अज्ञात मोर्चे पर एक ट्रेंच का नीरस दृश्य, अक्रियता और रीढ़विहीनता से भरा हुआ. ]
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