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एटॉमिक वेपनाइजेशन इन पाकिस्तान?
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पाकिस्तान का परमाणु सशस्त्रीकरण? अमां क्यों मज़ाक करते हो! आर यू स्योर फॉर व्हाट आर यू सेइंग मैन?

"बीसवीं सदी की आखिरी साँसों में, पाकिस्तान ने स्वयं का परमाणु सशस्त्रीकरण किया।" -- ये मिथ्या प्रसार दोनों सदियों का सबसे बड़ा लतीफ़ा होना चाहिए, ठीक वैसी ही मंद मुस्कुराह देने वाला लतीफ़ा, जैसे कि किसी बालक की चन्द्रमा लेने की हठ पर माँ उसे शक्कर का श्वेत लड्डू दे देती है, और प्रत्यक्षदर्शी मुस्कुराते हैं।

बहरहाल, हम इस पूरी कहानी की तह तक जाना चाहेंगे। इस कहानी की तमाम झूठी-सच्ची बातें इंटरनेट पर फैली हुई हैं। उनसे इतर, पाकिस्तान के एटॉमिक वेपनाइजेशन की इनसाइड स्टोरी क्या है, ये हम जानेंगे!

इस कहानी में एक हठी बालक पाकिस्तान, परमाणु संयंत्र हेतु रुदन कर रहा है और बालक की माँ बने हैं डॉ कदीर। आजादी से ग्यारह बरस पहले, भोपाल में जन्मा एक लड़का अब्दुल कदीर, एक रोज़ पाकिस्तान का मोहसिन बन बैठा, मोहसिन-ए-पाकिस्तान!

"मोहसिन" यानी कि उपकार करने वाला, आड़े वक्त पर काम आने वाला। डॉ कदीर उस आड़े वक्त में काम आए, जब पाकिस्तान को परमाणु कार्यक्रम की एक अदद सफलता की तलाश थी। और आज! आज यदि पडोसी आवाम को ये ज्ञात हो जाए कि उनका "मोहसिन" एक चोर है, अपने एम्प्लॉयर को धोखा देने वाला एक चोर। तो क्या होगा?

जी हां, डॉ कदीर एक चोर थे। बहुत बड़े चोर!

अक़्सर चोर क्या चुराते हैं? रुपया-पैसा, गाड़ी, बाइक, सोना और रत्नादि। किन्तु डॉ कदीर ने तो अपने नियोक्ता का विश्वास ही चुरा लिया था। उन्होंने चुराया था, उनदिनों के सबसे उन्नत यूरेनियम एनरिचमेन्ट प्लांट के सेंट्रीफ्यूज़ का ब्लू प्रिंट। उन्हें चोर नहीं बल्कि डाकू कहा जाना चाहिए, तकनीक का डाकू।

और ऐसे व्यक्ति से जब डॉ अब्दुल कलाम के बारे में प्रश्न किया गया तो उसने कहा, कलाम एक मामूली वैज्ञानिक हैं। हाँ हाँ, क्यों नहीं! उसकी नज़र में कलाम को एक मामूली वैज्ञानिक ही होना चाहिए था। क्योंकि उन्होंने कुछ चुराने जैसा महान कार्य नहीं किया था न!

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तो साहिबान, ये सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों की बात है। डॉ कदीर, एक यूरोपियन कंपनी "यूरेन्को" में काम करते थे, एज़ अ मेटलर्जी इंजीनियर, धातुकर्म अभियंता। वहाँ उनके जिम्मे यूरेनियम के बड़े बड़े अयस्क आते थे, जो खनन कर्म के पश्चात् कच्चे माल की तरह "यूरेन्को" की एनरिचमेन्ट यूनिट में पहुंचा करते।

अक़्सर ही, इन अयस्कों में यू-235 की मात्रा एक प्रतिशत और यू-238 की मात्रा निन्यानबे प्रतिशत हुआ करती है। "यूरेन्को" के पास इस अयस्क से परमाणु संयंत्रों के लिए निरर्थक यू-238 को अति-आवश्यक यू-235 से विलग करने की एक बेहतरीन विधि उपलब्ध थी, अपने आप में उनदिनों की तकनीकी दुनिया के लिए एक जादुई यन्त्र!

इस यन्त्र में एक लाख रोटेशन प्रति मिनट पर घूमते हुए सेंट्रीफ्यूज लगे होते हैं, जो सेंट्रीफ्यूगल फ़ोर्स का प्रयोग कर गैसीयरूप में भीतर पहुंचे अयस्क से यू-238 को अलग करते हैं।

इस यंत्र में अयस्क को ऑपरेट करने से पहले पिघलाया जाता था, जब ठोस अयस्क तरल बन जाता तो उसको गैस बनाने की प्रक्रिया आरंभ होती। इस गैस को उस विशेष यन्त्र में प्रवेश करवाया जाता था। और एक निश्चित आउटपुट से शुद्ध यू-235 कलेक्ट कर लिया जाता।

एक बेहतरीन परमाणु अस्त्र हेतु इस प्रक्रिया को हज़ारों लाखों बार दुहराना पड़ सकता है!

पाकिस्तान के पास इस तरह की प्रकिया हेतु तीन प्लांट्स हैं, तीनों ही इस्लामाबाद के निकट हैं। पहला है गोलरा कसबे में, दूजा सिहाला कसबे में और तीसरा, जहाँ कि अस्त्र बनते हैं, कुहाटा में है।

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इस पूरी कहानी की महत्त्वपूर्ण कड़ियों का खुलासा, डॉ इफ्तिखार खान चौधरी ने किया!

पाकिस्तान के पहले सफल एटॉमिक टेस्ट के ठीक तीन दिन बाद ही, डॉ इफ्तिखार अॅफ़बीआई के सामने राजनैतिक शरण मांग रहे थे। आश्चर्य ही था कि अपने आप को पाकिस्तानी परमाणु सशस्त्रीकरण का निदेशक कहने वाला व्यक्ति शरण का आकांक्षी था, चूंकि पूरा परमाणु कार्यक्रम ही एक भ्रम था।

एक ऐसा भ्रम जिसने आवाम सहित हुकूमत को तो विश्वास दिला दिया था कि आप परमाणु सम्पन्न देश हो चुके हैं। किन्तु डॉ इफ्तिखार जानते थे कि जिस रोज़ पकिस्तान को इन अस्त्रों की आवश्यकता पड़ेगी, ये अपने ईंधन यू-235 की गैसीय प्रवृत्ति के कारण केवल फुस्स ही साबित होंगे।

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इसे आप कुछ वैसा समझिए, जैसे कि कार में लगी सीएनजी की किट!

जब आप पठारीय या पर्वतीय क्षेत्रों में जाते हैं, तो सुझाव दिया जाता है कि अपनी कार में लिक्विड फ्यूल भी अवश्य रखें। चूंकि गैसीय ईंधन की विश्वनीयता लिक्विड फ्यूल से अपेक्षाकृत कम है।

ठीक वैसे ही पाकिस्तान के एटॉमिक हथियार हैं। गैसीय ईंधन के कारण उनकी विश्वसनीयता बेहद कम है। यहाँ तक उनके अपने हुक्मरानों और सिपहसालारों को भी उन हथियारों पर यकीन नहीं।

अक़्सर आपने देखा ही होगा, कोरिया के किम जोंग की चेतावनी पर अमेरिका सहित समूचे विश्व की जिस छटपटाहट का नज़ारा देखने को मिला था, वो पाकिस्तान की चेतावनी पर देखने को नहीं मिलता। उसका कारण यही है, हथियारों के मुख्य ईंधन स्रोत का गैसीय प्रक्रिया पर आधारित होना।

वे हथियार केवल छोटे मोटे देशों को डराने के लिए हैं। भारत और अमेरिका जैसे देशों पर इन हथियारों का कोई फर्क नहीं पड़ता। अमेरिका कभी भी पाकिस्तानी चेतावनी को गंभीरता से नहीं लेता।

अंततोगत्वा, भारत की सरजमीं से जो आँखें पाकिस्तान की दिशा में आसमान तकती हैं कि कब मिसाइल उतरे, और उन्हें इस राष्ट्र की बर्बादी से सुकून मिले, उन आँखों को मेरा पथरीला लानत पहुंचे। उन आँख वालों को मेरी बद्दुआ कि वे यों ही राह तकते तकते पत्थर हो जाएं।

चूंकि उनके महबूब का तो कोई भी "गैसीय" संदेशा पहुँचने से रहा!

✍️Yogi Anurag