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कवच कुण्डल
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"कवच" शब्द आते ही एक ऐसी संरचना का चित्र स्वतः खिंच जाता है, जिसे एक योद्धा वस्त्र की भाँति पहने। एक ऐसा धात्विक आवरण, जो अस्त्र शस्त्रों के तीक्ष्ण प्रहारों से देह को सुरक्षित करे।

किन्तु, "कवच-कुण्डल" शब्दबन्ध का अपना अलग महत्त्व है। इसका उच्चारण पूर्ण होने से पूर्व ही "कर्ण" का चित्र खिंच जाता है!

बहरहाल, "कवच-कुण्डल" से पूर्व "कवच" पर बात हो। "कवच" क्या है? रक्षा आवरण को "कवच" ही क्यों पुकारा गया है?

संस्कृत भाषा में एक धातु है : "वञ्च्"। इसका भाव "छल" से सम्बन्धित है। "छल" यानी कि "ठगना"।

इसी "वञ्च्" धातु से बना एक शब्द है : "वंचित"। बहुधा लोग इसका प्रयोग "प्राप्त न होना" के अर्थों में करते हैं।

किन्तु इसका सही भाव है, किसी छल के कारण लक्ष्य को प्राप्त न कर पाना!

धातु "वञ्च्" से ही "प्रवञ्चना" शब्द की निर्मिति हुयी है।

जब कोई "अस्त्र" अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता, तो उस "अस्त्र" के साथ वैसी "प्रवञ्चना" करने वाली व्याप्ति को "कवच" कहा जाता है।

जो "अस्त्र" को लक्ष्य प्राप्ति से वञ्चित करे, वो "कवच"!

यों तो "वञ्च्" धातु और "प्रवञ्चना" शब्द के अर्थ नकारात्मक हैं। किन्तु "कवच" सदैव ही किसी जीवन की रक्षा का कारण बनता है।

अतः "अस्त्र" के साथ हुयी "प्रवञ्चना" का उतना महत्त्व नहीं रह जाता। और "कवच" के मायने सकारात्मक हो जाते हैं।

"कवच" की शब्दव्यञ्जना इतनी ही पर्याप्त है। अस्तु अब "कवच-कुण्डल" की ओर चलें!

कर्ण के "कवच-कुण्डल" अभेद्य थे?

नहीं! बल्कि वे अविजित् थे। या कि यों कहाँ जाए, उन्हें कोई जीतना नहीं चाहेगा!

उस "कवच" की कठोरता ये थी कि उसे महानतम अस्त्र भी नहीं भेद सकता था। और उसकी कोमलता ये थी कि एक साधारण बाण भी उसे भेद कर कर्ण के हृदय से जा सकता था!

बस अर्हता ये थी कि वो बाण कर्ण को युद्ध में पराजित करने वाले धनुर्धारी की शत-प्रतिशत शक्ति से चलाया जाए!

अर्थात् प्राणों की शक्ति भी देह में शेष न रहे, उतनी शक्ति से चलाया गया बाण उस "कवच" को भेद सकता था।

तो फिर कर्ण अविजित् कैसे हुए?

वो इसलिए चूँकि ऐसा कोई योद्धा उनदिनों आर्यवर्त में न था जो कर्ण को पराजित भी कर सके, और फिर अपने प्राण त्यागने हेतु भी सज्ज हो।

अवश्य ही, अर्जुन कर्ण को परास्त कर सकते थे। किन्तु वे कर्ण के वध मात्र जैसे कार्य हेतु अपने प्राण नहीं त्यागना चाहते थे!

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और वैसी स्थिति में एक कथा का प्रवेश होता है, देवराज इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल की याचना!

इस विषय में टीवी सीरियल्स का रवैया बेहद निराश कर देने वाला रहता है। इतनी लागत से बनने वाले कार्यक्रमों में, क्या कोई ऐसा व्यक्ति उपलब्ध नहीं जो ये निश्चित कर सके कि वास्तव में "कवच-कुण्डल" का प्रकरण कब घटित हुआ?

अक्सर दिखाया जाता है कि कुरुक्षेत्र में सेनाएं सज्ज हो चुकी हैं। बस अब कुछेक दिन में युद्ध आरम्भ होने जा रहा है।

और उसी समय इन्द्र आ गए!

देवराज का ये कार्य लोक-हितसिद्धि से इतर स्वार्थसिद्धि अधिक लगता है। वास्तव में ऐसा है नहीं।

वस्तुतः "कवच-कुण्डल" का प्रसङ्ग, वनपर्व के "कुण्डलाहरण" पर्व में उल्लिखित है।

बाकायदा एक पृथक उपपर्व है इस प्रसङ्ग का, कुण्डलाहरणपर्व, ऐसा पर्व जिसमें "कुण्डलों"का हरण व्याख्यायित हो!

किन्तु कर्ण को अर्जुन से श्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रतिस्पर्धा, जो न करवाये सो कम है। बहरहाल, दोनों ही अपने अपने स्थान पर श्रेष्ठ थे।

दोनों में कौन श्रेष्ठ है, इस कथ्य हेतु मिथ्या तथ्यों की भला क्या आवश्यकता!

आइए, अब "कवच-कुण्डल"के उद्गम की कथा पर चलें।

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इस कथा का आरम्भ महाभारत काल से नहीं होता। बल्कि कथा तो युगों युग पुरातन है!

ये उनदिनों की बात है जहाँ से जम्बूद्वीप और भारतवर्ष का इतिहास आरम्भ होता है।

उन्हीं दिनों में एक अत्यन्त अज्ञातकुलशील राक्षस हुआ है, सहस्रकवीच। उसका नाम "सहस्रकवीच" होने कारण, उसका सहस्र "कवचों" का स्वामी होना था।

उस राक्षस ने सूर्यदेव की आराधना से स्वयम् की रक्षा हेतु ऐसा "कवच" मांगा, जिसे किसी भी स्थिति में कोई भी न भेद सके।

सूर्यदेव ने कहा, असंभव, ये वरदान मैं नहीं दूंगा!

तिस पर वो राक्षस बोला, कि मुझे ऐसे सहस्र "कवच" दीजिये जो मेरे पराजित होने उपरान्त भी सम्मुख योद्धा की प्राणशक्ति से नष्ट हों!

"तथास्तु" कहकर सूर्यदेव अन्तर्ध्यान हो गए और इधर लगभग अमर हुए "सहस्रकवीच" ने अपने अत्याचारों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को कम्पित कर दिया।

जम्बूद्वीप ले अधिष्ठात्र देव "नर" और "नारायण" का आगमन हुआ। उन दोनों ने एक विशेष योजना से "सहस्रकवीच" के नौ सौ निन्यानबे "कवच" नष्ट कर दिए!

योजना कुछ यों थी कि "नर" युद्ध करेंगे, "नारायण" तपस्या करेंगे। ज्यों ही "नर" ने पहला "कवच" नष्ट किया, उनकी मृत्यु हो गई।

"नारायण" तपस्या से उठे। "नर" के निकट जाकर बोले, यदि मेरी तपस्या सफल हुई तो "नर" जी उठें। वैसा ही हुआ।

किन्तु अब "नारायण" युद्ध करेंगे!

जब "नारायण" सङ्कट में होंगे तो "नर" उन्हें अपनी तपस्या के फल से स्वस्थ कर लेंगे और फिर "सहस्रकवीच" के एक और "कवच" को नष्ट करेंगे।

इसी प्रक्रिया से उन दोनों ने नौ सौ निन्यानबे "कवच" नष्ट कर दिए!

शेष रहे एक "कवच" के साथ, सहस्रकवीच ने सूर्यलोक की ओर पलायन कर लिया।

सूर्यदेव, मेरा रक्षण कीजिये! सूर्यदेव!

ऐसे स्वरों के साथ सहस्रकवीच सूर्यलोक में प्रविष्ट हो गया। उसका पीछा करते हुए नर-नारायण सूर्यलोक जा पहुंचे।

सूर्यदेव ने कहा, रक्षा करने वाला व्यक्ति "पिता" के समान होता है। अतः अब आप मेरे पुत्र समान "सहस्रकवीच" का वध न कर सकेंगे!

कालान्तर में, जब नियति ने महाभारत युद्ध का आयोजन निश्चित किया तो "सहस्रकवीच" को ही "सूर्यपुत्र" बनकर धरा पर आना पड़ा।

उनके साथ, उनका "कवच" भी था। वही "कवच" जो एक सहस्र में से एक शेष रहा था। नर-नारायण स्वरूप में अर्जुन-कृष्ण भी उपस्थित थे।

शेष जो हुआ, वो इतिहास है! कर्ण का वध ही "महाभारत" युद्ध की नियति थी। इसे टाला नहीं जा सकता था। किसी भी स्थिति में नहीं!

अस्तु।

Yogi Anurag

[ चित्र : प्रतीकात्मक। स्वयं की देह से कवच उतारते कर्ण। दो हज़ार तेरह में आये एक धारवाहिक से साभार। ]