Raj Singh's Album: Wall Photos

Photo 55 of 153 in Wall Photos

श्रीराममन्दिर कैसा हो?
______________________________________

आजकल के परिदृश्य में, ये चर्चा खूब चल रही है कि “श्रीरामजन्मभूमि” पर निर्मित होने जा रहे “श्रीराममन्दिर” का आकार आकृति कैसी हो?

यों तो सदा से ही आकार आकृति के ढेरों विकल्प सुझाए जाते रहे हैं, अगण्य रेखाचित्र और प्रतिदर्श भेजे जाते रहे हैं। यद्यपि “श्रीराममन्दिर” की बनावट में शास्त्रगत सुचिन्तन कर लेना भी बड़ा आवश्यक है।

तथापि मन्दिरों की बनावट हेतु सनातन साहित्य में वास्तुशास्त्र से इतर कोई पृथक् शास्त्र तो नहीं मिलता। हाँ, प्रत्येक शास्त्र में कहीं न कहीं ऐसे उल्लेख अवश्य बिखरे हुए मिल जाते हैं, जो मन्दिरों की आकर्षक बनावटों का वर्णन करते हैं।

सो, उन्हीं सन्दर्भों से विचार कर मन्दिर के आकार आकृति को चार प्रकार से विभेदित किया जा सकता है : स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, विच्छन्दक और सर्वतोभद्र।

शास्त्रगत विवेचना और सम्बन्धित सन्दर्भों की प्रचुरता के आधार पर “श्रीराममन्दिर” की बनावट “सर्वतोभद्र” जैसी हो तो श्रेस्यस्कर है।

-- इस प्रकरण पर विमर्श करने से पूर्व अन्य तीन बनावटों पर अनुच्छेद भर की चर्चा कर लेना भी तमाम उठते प्रश्नों को शान्त करेगी। सो, हम उसी दिशा में चलते हैं!

##

“स्वस्तिक” एक ऐसा मन्दिर भवन है, जिसमें पूर्व दिशा की ओर द्वार नहीं होता। इनमें सूर्योदय की रौशनाई नहीं पहुँचती और रात्रि का कोई रहस्य प्रकट नहीं होता। सो, ऐसे भवन उन मन्दिरों हेतु प्रयोजे जाते हैं, जिनमें रात्रि के अन्तिम प्रहर में तन्त्र साधना की जाए।

“नन्द्यावर्त”, जैसा कि नाम से प्रतीत होता है कि ये वर्तुलाकार कोई आकृति होगी। ठीक ही है, ये भवन गोलाकार आकृति में बनाया जाता है। इसकी हीनता ये है कि इसमें पश्चिम दिशा का प्रवेश द्वार नहीं होता। सूर्यास्त का प्रकाश व संध्या की शीतल वायु, दोनों से रहित प्रांगण होता है। सो, ये उन मन्दिरों हेतु श्रेस्यस्कर है, जहाँ संध्याकाल से ही तान्त्रिक साधना की जाए।

“विच्छन्दक” भवन का ऐसा प्रकार है, जो लम्बा चौड़ा तो खूब होता है, किन्तु इसमें दक्षिण दिशा का निषेध होता है। कदाचित् मृत्यु की और राक्षसों की दिशा होने के कारण ऐसी निषिद्धि का समावेश किया गया है।

सो, शास्त्रगत मतानुसार यही सुनिश्चित होगा कि सर्वाराध्य “श्रीराम” का मन्दिर किसी भी निषिद्धि से युक्त न हो!

##

“सर्वतोभद्र” एक ऐसी बनावट है, जिसके द्वार चारों दिशाओं में होते हैं!

यों तो श्रीहरि विष्णु का वाहन गरुड़ है, किन्तु जब वे रथ पर प्रवास करते हैं तो उस रथ की बनावट को “सर्वतोभद्र” में ढाला जाता है। त्रिमूर्ति की प्रतीक वृक्षत्रयी (बरगद- नीम- पीपल) में नीम को “सर्वतोभद्र” कहा गया है।

नन्दनवन की ही भाँति देवताओं का एक वन “सर्वतोभद्र” भी है। सुमेरु पर्वत-शृङ्खला के एक शिखर नाम भी “सर्वतोभद्र” है, जो सुमेरु-परिधि के किसी भी बिन्दु पर खड़े होकर, किसी भी दिशा में दृष्टि डालने पर दृश्यमान होता है।

गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करते ब्रह्मचारी का रूप भी “सर्वतोभद्र” कहलाता है। चूँकि उसके लिए आवश्यक है कि वो अपनी चेतना के सभी किवाड़ खोल रखे।

सो, कालान्तर में ऐसे सभी मनुष्यों को “सर्वतोभद्र” कहा जाने लगा, जो देह के समस्त केशों का मुण्डन कर गुरुकुल के ब्रह्मचारी विद्यार्थी का रूप ले लें।

-- इतनी अधिक विशेषताओं से युक्त एक आकार/ आकृति या बनावट “सर्वतोभद्र” को, देवव्रत भीष्म ने एक महान व्यूह का रूप दिया। उसका प्रयोग कर, वे अपने जीवन में अन्तिम बार विजित रहे!

महाभारत युद्ध के नवें दिवस इस व्यूह का प्रयोग किया गया था, जिसमें कि कौरव-सेनापति को सूर्यास्त तक कोई विजित न सका। देवव्रत भीष्म की शरशैय्या का प्रसङ्ग दसवें दिवस का है।

यों तो विष्णु मन्दिरों की निर्मिति की सर्वश्रेष्ठ विधा “सर्वतोभद्र” ही थी। किन्तु देवव्रत भीष्म के इस युद्धक कार्य से “सर्वतोभद्र” एक व्यूह के रूप में प्रचलित हो गया और वैसे विष्णु मन्दिरों का निर्माण ही पूर्णरूप से समाप्त हो गया।

इस युद्ध के साढ़े तीन हज़ार साल पश्चात् दो मनुष्य जन्मे : भारवि और शेषजी। इन दोनों ने देवव्रत भीष्म के नवें व्यूह को उठा कर दो भिन्न प्रयोग किए!

श्री भारवि ने उस व्यूह पर बत्तीस वर्णों के चतुष्पाद श्लोक का गठन किया। वहीं श्री शेषजी ने इस व्यूह पर बत्तीस इकाइयों की चतुरङ्गिणी सेना का गठन कर “शतरञ्ज” जैसे खेल का निर्माण किया।

कदाचित् आपको आश्चर्य हो कि सँस्कृत का काव्यरूप श्लोक स्वयम् में एक “सर्वतोभद्र” है। ये श्रेष्ठतम होता है, जब इसे कुल बत्तीस वर्णों के सँयोजन में प्रकट किया जाए।

श्लोक के चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में आठ वर्ण हों, तो कुल श्लोक बत्तीस वर्ण का होगा। अब यदि प्रत्येक चरण को वर्णों में दूरी रखकर लिखा जाए और उसे एक पङ्क्ति माना जाए, तो पूरा श्लोक ऐसी चार पङ्क्तियों में व्यक्त होगा।

अव्वल तो ऐसी चार पङ्क्तियों के क्रम को, एक- दो- तीन- चार में लिखा जाए। फिर चार- तीन- दो- एक में लिखा जाए। ऐसा करने से आठ हॉरिजॉण्टल पङ्क्तियों की एक वर्गाकार (स्क्वायर) आकृति प्राप्त होती है।

(गौर करें, प्रत्येक पङ्क्ति में आठ ही वर्ण थे! श्री भारवि के एकमात्र महाकाव्य “किरातार्जुनीय” के एक “सर्वतोभद्र” श्लोक का उल्लेख टिप्पणी मंजूषा में दिया गया है।)

-- इस तरह एक आठ बाय आठ का एक स्क्वायर प्राप्त हुआ! आठ बाय आठ का इस “सर्वतोभद्र” का प्रयोग, भारवि से लगभग साढ़े तीन हज़ार वर्ष पहले, देवव्रत भीष्म ने बत्तीस योद्धाओं और उनकी बत्तीस सेनाओं को स्थान देकर कर लिया था।

अब आप श्री शेषजी द्वारा प्रयोजे गए “सर्वतोभद्र” की ईश्वरीय महत्ता और अनन्तता का रहस्य निहारिए!

##

श्री शेषजी अत्यन्त निर्धन व्यक्ति थे। किन्तु उतने ही सन्तोषी भी!

उन्होंने अपनी अध्ययनशीलता के द्वारा “सर्वतोभद्र” के गुह्य-ज्ञान को प्राप्त किया था। और आठ बाय आठ के उस व्यूह पर, बत्तीस छोटी बड़ी कौड़ियों द्वारा रचे गए अपने खेल को लेकर, राजा के पास पहुँचे।

राजा चमत्कृत रह गए! विचार करने लगे कि राज्य में ऐसे ऐसे प्रतिभाशाली लोग भी हैं, जो एक प्राच्य-मन्दिर की आकृति पर निर्मित प्राच्यव्यूह को इस तरह खोज कर ले आए।

राजा ने “माँगो क्या माँगते हो” की भाँति श्री शेषजी को “भेंट” देने की पेशकश की। तिस पर श्री शेषजी ने मुस्कुरा कर कहा :

“महाराज! ईश्वरीय सत्ता का स्वामित्व पाना चाहते हैं? अच्छी बात है! आप मेरे पूर्वजों की इस सर्वतोभद्र सम्पदा को श्रद्धा-सुमनों से भर दीजिए।”

राजा आश्चर्यचकित हो बोले : “मात्र पुष्पों की अभिलाषा है, महोदय? पुनः विचार लीजिए, मैं आपको कुछ भी देने को सज्ज हूँ, कुछ भी जो आप माँगें!”

तब श्री शेषजी ने नाटकीय दार्शनिक का समावेश करते हुए अपने कार्ड्स खोले : “राजन्! क्षुधा मनुष्य की सबसे बड़ी कोमलता है। आप उसका पालन कीजिए। मेरे सर्वतोभद्र को, इस युद्ध-मन्दिर को अन्न-पुष्पों (गेहूँ के दानों) से भर दीजिए। तत्पश्चात् उस समस्त अन्न को प्रजा के दरिद्रों में वितरित कर दीजिएगा।”

राजा श्री शेषजी के सन्तोष पर चकित रह गए। मुस्कुरा कर कहा : “शेषजी, अब मैं अन्तिम बार पूछता हूँ, कोई और इच्छा है?”

-- इतना अहङ्कार देखकर, शेषजी ने कहा : “इच्छा है न महाराज! यही इच्छा है कि प्रत्येक दूसरे खाने पर पिछले खाने से दोगुने दाने हों!”

यानी कि आठ बाय आठ के “सर्वतोभद्र” पर बने चौंसठ खानों को कुछ यों भरा जावै कि पहले खाने पर पर एक दाना, दूजे पर दो, तीजे पर चार, चौथे पर आठ, पांचवें पर सोलह, छठवें पर बत्तीस... और इसी तरह आख़िरी खाने तक!

राजा ने भण्डारी को बुला कर श्री शेषजी की उस लघुइच्छा को पूर्ण करने आदेश दिया और स्वयम् अपने राजकाज में संलग्न हो गए।

किन्तु यह क्या? खानों की संख्या दहाई में पहुंची तो दानों की संख्या लाखों में पहुँच गई। स्थिति ये हुई कि पच्चीसवें खाने को भरने हेतु करोड़ों दाने चाहिए थे। ऐसे में आगे की तो कल्पना ही त्याग दी जावै!

भण्डारी ने ऐसी विचित्र गणनाएँ पाकर अपना माथा पकड़ लिया। सूचना राजा तक पहुँची। वे श्री शेषजी के शरण में आ गए, कि प्रभु कुछ उपाय कीजिए। किन्तु श्री शेषजी ने कहा :

“हे राजन्! विष्णु के रथ को सन्तृप्त करने का सामर्थ्य किसी मनुष्य में नहीं। वसुओं के व्यूह से कोई नहीं युद्ध कर सकता। सो, ये अन्न-पुष्पों का विचार त्याग कर एक लघुदीप प्रज्ज्वलित कर दीजिए, समग्र सर्वतोभद्र आपकी श्रद्धा के प्रकाश से भर जाएगा!”

##

ठीक यही विष्णु का रथ, वसुओं का व्यूह और स्तुतिकाव्यों के श्लोकों का श्रेष्ठ प्रश्रय “सर्वतोभद्र” ही विष्णु मन्दिरों की बनावट हेतु श्रेयस्कर है!

इसी आठ बाय आठ के “सर्वतोभद्र” रेखाचित्र में, सँस्कृत वर्णों और सेनाओं के स्थान पर, ईश्वरीय मूरतें सजा दी जाएं, तो तैंतीस देवताओं में से बत्तीस देवताओं के दो दो स्थान सुरक्षित हो जाते हैं।

और केन्द्रस्थ गर्भगृह में स्थापित हो जाते हैं मुख्य देव, श्रीविष्णु यानी कि मेरे श्रीरामलला!

श्री शेषजी द्वारा इङ्गित किए जाने के पश्चात् हुईं गणितीय गणनाएँ कहती हैं कि यदि पूरी पृथ्वी की भूमि को कृषियोग्य बना कर मनुष्य वृक्षों पर रहने लगे, तो भी अन्न की एक वर्षीय पैदावार उतनी न होगी कि “सर्वतोभद्र” को भरा जा सके।

इसी अनन्तता के कारण, श्रीहरि विष्णु के मन्दिर हेतु सदा “सर्वतोभद्र” बनावट को ही चुना जाता है।

इसका बेहतरीन उदाहरण कम्बोडिया का अङ्गकोरवाट मन्दिर है। ये दुनिया का एकमात्र शेष रहा “सर्वतोभद्र” मन्दिर है।

ध्यातव्य है कि कुछ कुछ वैसी ही प्राचीनता लिए एवम् उससे कहीं बढ़कर आधुनिकता का समावेश लेकर, “श्रीरामजन्मभूमि” पर “श्रीराममन्दिर” का निर्माण किया जाए।

यही हर हिन्दू की अभिलाषा है हम चाहकर भी उतने पुष्प न जुटा सकें जितने कि उस प्राङ्गण को भरा पाने योग्य पर्याप्त हों!

चार सौ नवासी बरस तक, अपने ही जन्मस्थान पर निर्वासितों की भाँति रहे “श्रीरामलला” ये डिज़र्व करते हैं कि हम हिन्दू, समस्त विश्व को जीतकर उनके लिए पुष्प उगाएँ। किन्तु एकसाथ उतने पुष्प खिलें ही नहीं कि श्रीराम के “सर्वतोभद्र” की सज्जा की जा सके।

“श्रीरामजन्मभूमि” पर वैसी अनन्तता वाले “श्रीराममन्दिर” की आशा है, अभिलाषा है और प्रतीक्षा भी है!

इति नमस्कारान्ते। जय श्री राम।