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Raj Singh
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"लड़की" : एक सुबह
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लड़की ट्रेन में है।
खिड़की से दिखने वाली पटरियां जैसे उसके भीतर खरोंचों की तरह खिंची हैं!
जबकि, उसकी आंखें समुद्र में दूर छिटक आईं नावों की तरह।
सूत के सफ़ेद कपड़े से उसने अपने चेहरे को छुपा रखा है। हल्के रंग का लिबास, आंखों में काजल, कानों में ईयरफ़ोन।
एक लंबे मोड़ पर रेलगाड़ी किसी सांप की तरह लहराती है।
जाने कितने "सुस्त क़दम रस्ते" उसके भीतर के जाने कितने मोड़ पर छूटे होंगे, जाने कितनी "तेज़ क़दम राहें!"
सामने की सीट पर बैठे पुरुष नज़र बचाकर उसे निहार रहे हैं। उसकी आंखें जब-तब उनकी आंखों से टकरा जाती है।
एक अनुपस्थित-सी दृष्टि।
जैसे बारिश की खिड़की में एक सफ़ेद रोशनी।
मानो, उन सबसे कह रही हो :
"तुम मुझे पा नहीं सकते, जो यह सूत का लिबास ना होता मेरे बदन पर, तब भी!"
अपने सेलफ़ोन पर पूरे रास्ते गाने सुनती आई है वो। आख़िरी गाना बजता है : "पूरे से ज़रा-सा कम है।"
अब वह प्लेलिस्ट को पॉज़ कर देती है और सोच में डूब जाती है।
"पूरे से क्या कम है? पूरा ही तो है। जैसे कि, मेरा यह अधूरापन। एक रत्ती कम नहीं। पूरे का पूरा अधूरापन है!"
ट्रेन टर्मिनस की सर्पिलाकार लकीरों पर रेंग रही है।
लड़की प्लेटफ़ॉर्म पर धीमे-धीमे क़दम रखकर चलती है, मानो कहीं उसके क़दमों की आहट से ही उसके भीतर सोया कुछ जाग न जाए।
लड़की दफ़्तर पहुंचती है, अपने मेल्स चेक करती है, कुछ के रिप्लाई लिखकर सेंड पर क्लिक कर देती है।
उसकी डेस्क पर स्माइली बॉल्स हैं, जो उसे देखकर मुस्कराती हैं।
एक बड़े-से मग में स्केचपेन का इंद्रधनुष है!
लंच टाइम से पहले वह अपना फ़ेसबुक स्टेटस अपडेट करती है :
"एक पल देख लूं तो उठता हूं / जल गया सब / ज़रा-सा रहता है / जाने क्यूं दिल भरा-सा रहता है!"
[ हैशटैग : #JustGulzar ]
[ Feeling : "ये जिस्म है कच्ची मिट्टी का / भर जाए तो रिसने लगता है!" ]
Sushobhit Singh Saktawat
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