एक स्माइल की फ़रमाइश करने वाली लड़की
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उससे मिलने से पहले तक मुझको मालूम नहीं था कि मुस्कराऊं तो गालों में गड्ढे पड़ते हैं!
या शायद मालूम भर था, लेकिन इस बात को वैसे अनुभव नहीं किया था। वैसे ही मालूम था, जैसे कि चेहरे पर सुकुमार कोमलता है, बाल कान से नीचे बढ़ें तो घूम जाते हैं, आंखें डूबी तंद्रिल सी रहती हैं। लेकिन इस सबको भी वैसे नहीं जानता था, जैसे उसके बाद जाना।
वो मेरी सहपाठिनी थी, मिडिल स्कूल में।
"कच्ची-पहली" से वो हमारी क्लास में नहीं आई थी, दूसरी से नहीं पांचवीं से भी नहीं। उससे हमेशा से ही मेलजोल नहीं था, वो हमेशा से ही वहां नहीं थी।
जब हम चौथी में थे, तब टेकचंद ने छोड़ दिया था स्कूल! उसको नहीं पता था कि कैसे गिलहरी कुचल गई थी टेकचंद के पैरों तले वार्षिकोत्सव वाली दौड़ के दौरान। हम सब बस्ता लाते थे, एल्युमीनियम की पेटी लेकर आता था पेशवानी, ये उसने कभी नहीं देखा। जितेन के पिता हलवाई थे और वो टिफ़िन में लाता था रबड़ी। हिम्मत, किम्मत, सिम्मत करके तीन भाई थे और वो सिख मोहल्ले से आते थे। मुक्ता थी मेरी हमजोली, घर से लेकर स्कूल तक, हरदम मेरे साथ। जब हम तीसरी में थे, तब मैंने नाच के एक कार्यक्रम में भाग लिया था। ख़ुद तो नहीं नाचा, लेकिन रेलगाड़ी के डिब्बे का रूप धरकर फिरता रहा था पूरे स्टेज पर, यह उसने कभी नहीं देखा था।
कच्ची-पहली से नहीं, दूसरी से नहीं पांचवीं से भी नहीं, छठी में थे हम, तब आई थी वो मराठी मंदिर विद्याशाला से। नाम था- कंचन!
कैसा कौतुक! क्लास में एक नई लड़की। जो हम सबके बारे में कुछ नहीं जानती थी, हम उसके बारे में कुछ नहीं जानते थे। एक उसके क्लास में होने भर से जैसे सभी आत्मचेतस हो गए थे। इससे और असहज हो गई थी वो। शुरू के कितने दिन सहमी-सहमी-सी रही। कोमल इतनी कि धूप लगे झुलसती। चेहरा लाल सुर्ख़ पड़ जाता। संकोची इतनी कि पानी पीने भी नहीं जाती पूनम को साथ लिए बिना!
मैं पीछे की पंक्ति में बैठता था, वो पहली पंक्ति में। क्लास की सबसे छोटे क़द की लड़कियां बैठती थीं जहां- उषा, पूनम और वो। नए सत्र के पहले दिन मेरी टीचर ने कहा, सुशोभित, तुम फ़िफ़्थ में फ़र्स्ट आए थे ना, सबसे आगे जाकर बैठो। ख़ुद को समझ लो मॉनिटर।
मैं मॉनिटर नहीं बनना चाहता था, जानता था कि मॉनिटर का मज़ाक़ उड़ाते हैं सब बच्चे, स्कूल के बाद। फिर भी झेंपते हुए उठा, और सबसे आगे की पंक्ति में जा बैठा। उसके बस्ते से सट गया था मेरा बस्ता। सहसा वो इतनी क़रीब हो गई कि जब चाहूं आँख उठाकर देख सकता था, उसकी आँखों के कत्थई भंवर।
जाने कितने दिन बीते, आधा सत्र निकल गया। वो नए स्कूल में रच-बस गई। धीरे-से उसकी आवाज़ खिली, फिर रह-रहकर गूंजने लगी चुहलबाज़ियों में। उसने अपनी पक्की सहेलियां खोज निकालीं, उन्हीं के साथ टिफ़िन खाती, घर से आती, लौटकर जाती। एक दिन जाने क्या सूझी उसको, जाने किसने क्या बताया कि मुझे आकर बोली-- "सुशोभित, एक बार मुस्कराकर दिखाओ ना। सुना है तुम्हारे गाल में पड़ते हैं गड्ढे!" मैं झेंपकर रह गया। लाल पड़ गया चेहरा।
उससे मिलने से पहले तक मुझको मालूम नहीं था कि मुस्कराऊं तो गालों में गड्ढे पड़ते हैं। या शायद मालूम तो था, लेकिन कभी इस तरह से सोचा नहीं था कि इसमें कुछ विशेष भी हो सकता है। मैं झेंप तो गया, लेकिन घर जाकर कांच के सामने खड़ा हो रहा, उसको सोचा, मुस्कराया- देखा, सच में ही गाल में गड्ढे बनते थे, जो धीमे से मुस्कराऊं।
फिर रह-रहकर वही रट- "ऐ सुशोभित, स्माइल करके दिखाओ ना!" कभी क्लास में, कभी रस्ते चलते। फिर उषा के हाथ पर ताली देकर ज़ोर की हंसी। ओह कंचन, तुम ऐसा क्यों करती हो, मैं मन ही मन सोचता, यह कोई अच्छी बात थोड़े है!
फिर एक दिन बोली- "ऐ शर्मिला टैगोर, तुम इतना इतराते क्यों हो रे। स्माइल करने का पैसा लगता है क्या? थोड़ा मुस्करा दोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा?" मैं उससे क्या कहता कि कितना तो मुस्कराता हूं, तुम्हें सोचकर ही तो, किंतु तुम्हारे सामने नहीं। घर जाकर आईने के सामने खड़ा होकर। और ख़ूब ध्यान से देखता हूं- गालों में डिम्पल्स!
आठवीं की परीक्षा देकर लौटे हम सन् चौरानवे में,
फिर नहीं गए लौटकर रामबाड़ा, जहां दस साल से जा रहे थे बिलानागा। स्कूल बदला तो स्कूल के सब चेहरे भी गुम गए। क्या जाने कौन किधर गया। बाद में बस ख़बरें ही मिलती रहीं कि धर्मपाल बन गया है चिकित्सक, जितेन ट्रक चलाने लगा, ब्याह हो गया उषा का, पूनम बन गई टीचर। नहीं मिला तो नहीं मिला, कंचन का ही कोई कुशल-समाचार!
और फिर एक दिन दिखी वह पूरे के पूरे पंद्रह पतझड़ बाद। दो हज़ार नौ की उस अन्यमनस्क सुबह इंदौर जाते पहर बस में सबसे आगे खड़ी थी कानों में ठूंसे ईयरफ़ोन। बहुत पीछे बैठा था मैं और कोई करिश्मा इस बार मुझे नहीं ले जा सकता था उसके समीप कि बैठ सकूं घुटने जोड़े! क्लास में चाहे अव्वल आऊं या नहीं।
वही तो थी। मैं राह देखने लगा कि उसकी नज़र मुझसे मिले। एक पल को उसने देखा तो मैंने वेव किया। उसने पहचाना नहीं। या शायद देखा ही नहीं ग़ौर से। उम्र के साथ उसमें संकोच चला आया था। ख़ुद में सिमट गई थी। अब ऐसे किसी लड़के को जाकर नहीं बोलती होगी कि स्माइल करके दिखाओ ना। और जो कोई मुस्कराए तो उसको निहारती भी कैसे होगी, बिना मन चुराए!
अरबिंदो कॉलेज से पहले ही उतर गई। मुझको जाना था सरवटे गाड़ी अड्डा। जैसे मिली थी वैसे ही खो गई। इस बार तो जैसे दूरस्थता के और गहन अभिप्राय लिए।
ऐ कंचन, ये पढ़ रही हो तो सुनो- मुझ पर अब तक उधार हैं वो तमाम मुस्कराहटें, जिनकी फ़रमाइश मुझसे करती थीं। एक बार लौट आओ, जैसे छठी क्लास में आई थीं मराठी मंदिर विद्याशाला से। ज़िद करो, जैसे करती थीं पिछली सदी में। मैं भले ना मानूं, तुम पुकारो तो। कि तुम्हारे लिए सहेज रक्खे हैं मैंने, अपनी मुस्कराहटों के तमाम गुलदस्ते!
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