बेटे का टिफ़िन
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जाड़ों की जड़वत् भोर
जिसमें रक्त तक में तंद्रा!
देरी से सब उठे
टिफ़िन के बिना ही
नौ बजे स्कूल गए चुनु
हल्का बस्ता उठाए.
मम्मा ने कहा ग्यारह बजे
पापा लेकर आएंगे टिफ़िन.
और ग्यारह में दस की देरी पर ही
पैदल चल पड़े पापा घर से कुलजमा
बारह फर्लांग दूर था स्कूल.
भाप से भरी थीं रोटियां
ऊष्मा से भरी थी आलू की तरकारी
और मेरी अंगुलियों के पोरों पर
खिल गया ताप का चैत्र.
जाड़ों में वैसे भी ठंडी रोटियां
बच्चे को कैसे खिलाएं?
केजी वन कक्षा तीसरी मंज़िल पर थी
मैं धड़ाधड़ चढ़ गया समस्त सीढ़ियाँ
क्लास में जाकर "चुनु" नाम पुकारा
आँखों में दूरियों के अचरज और
किंचित अपरिचय के साथ
बेटे ने देखा मानो कह रहा हो :
"पापा, ये स्कूल है!
"चुनु" नहीं "समाहित!"
"क्लास में पैरेंट्स को आने की अनुमति नहीं है!"
मैम ने बेरुख़ी से कहा. "जी अच्छा, मैं चलता हूँ"
कहकर लौट आया.
भाप भरी वे रोटियां
मेरे बेटे को पोसेंगी
उसका रक्त औ प्राण बनेंगी
स्कूल से चहकते हुए लौटने का
कौतुक बनेंगी
दोपहर की नींद और संध्या की
ऊधम बनेंगी!
यही सब सोचते मुदित मन से लौटा
अंगुलियों पर ऊष्मा के स्पर्श की
स्मृति लिए!