पशुवध के विरुद्ध
...
"पेड़-पौधों में भी तो जीवन होता है" : हत्याकांड के बाद पशुवध करने वालों और मांसभक्षियों का सबसे प्रिय कुतर्क बहुधा यही होता है। अपने अपराध बोध पर एक विचित्र-सा लचर डिफ़ेंस मैकेनिज़्म! जबकि उन्हें यह भी चेतना नहीं कि यह एक आत्मघाती तर्क है, यानी यह तर्क स्वयं की ही काट करने वाला है! कैसे?
वो ऐसे कि वैसा कहकर वे वास्तव में अपने पर लगाए आरोप को पहले ही स्वीकार कर लेते हैं, और उसके बाद केवल प्रतिरक्षा के तर्क दे रहे होते हैं! ऐसा वो इसलिए करते हैं क्योंकि वो हीनभावना से ग्रस्त होते हैं। मन ही मन वो जानते हैं कि वो जीभ के स्वाद जैसे निकृष्ट प्रयोजन से एक जीवन को नष्ट कर रहे हैं! वो यह भी जानते हैं कि यह हत्या अत्यंत क्रूरतापूर्वक की जाती है। मांसभक्षी की आत्मछवि एक नैतिक, बुद्धिमान, उदार, संवेदनशील व्यक्ति की होती है, जिसे इससे आघात पहुंचता है। तो वो अपने बचाव में कह बैठते हैं-- "पेड़-पौधों में भी तो जीवन होता है।" जैसे कि इस तथ्य की खोज उनकी औचित्यसिद्धि के लिए ही की गई हो।
अगर मांसभक्षियों पर लगाए गए आरोप के दो चरण हैं, पहला यह कि "क्या वे भोजन के लिए प्राणियों की हत्या करके अपराध करते हैं?" और दूसरा यह कि "यह हत्या मानव-हत्या के समकक्ष है या नहीं?" तो वे पहले चरण को स्वयं ही स्वीकार कर चुके होते हैं, जिसके बाद दूसरे चरण की विवेचना भर शेष रह जाती है। तब एक ऐसे अपराधी की कल्पना कीजिए, जिसे न्यायालय में प्रस्तुत किया गया है। उससे कहा जाता है कि "तुमने चोरी की है।" ऐसे में अगर उसने चोरी नहीं की है, तो वह कहेगा- "यह झूठ है, मैं चोर नहीं हूं।" किंतु अगर उसने चोरी की है तो वह आत्मप्रवंचना से भरा तर्क गढ़ते हुए कहता है कि "जज साहब, आप भी तो अपने अर्दली को उसकी योग्यता से कम तनख़्वाह देते हैं। यह भी मेरी नज़र में एक चोरी है।" इसमें पेंच यह है कि चोर तब एक तथ्य के रूप में अपने अपराध को पहले ही स्वीकार कर चुका होता है, लेकिन अब उसकी रुचि दूसरों को भी चोर सिद्ध करने में होती है, जो कि चोरी नहीं चोरी की एक हाइपोथीसिस है। "मैं चोर हूं तो तुम भी चोर हो"- इस वाक्य में "मैं चोर हूं" की आत्मस्वीकृति स्वत: ही निहित है। इसके बाद न्यायाधीश का काम बहुत आसान हो जाता है। अब उसे यही व्याख्या करना है कि वह अपने अर्दली को जितनी और जैसी तनख़्वाह दे रहा है, उसे चोरी की श्रेणी रखा जा सकता है या नहीं।
तो अपने बचाव में वधिकों की स्थापना यह होती है कि : मनुष्यों में जीवन होता है, पशुओं में जीवन होता है, पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। इस आधार पर वो यह सिद्ध करना चाहते हैं कि : अगर मनुष्य की हत्या अपराध है, पशु की हत्या अपराध है, तो पेड़-पौधों की हत्या को भी अपराध माना जाना चाहिए। कितने आश्चर्य की बात है कि इस कुतर्क के जाल में फंस जाने के बाद वो इस तर्क से विचलित हो जाते हैं कि पेड़-पौधों से फल और सब्ज़ी लेना पेड़-पौधों की हत्या करना उसी तरह से नहीं है, जिस तरह से गाय से दूध और भेड़ से ऊन लेना गाय और भेड़ की हत्या कर देने जैसा नहीं है। हां, यह उनका दोहन और शोषण अवश्य है, किंतु यह हत्या नहीं है। आप पेड़ से फल लेते हैं, पेड़ पर फिर फल उग आता है। आप गाय को मार देते हैं, गाय का जीवन समाप्त हो जाता है। कोई मूर्ख ही इन दोनों को समान बता सकता है। आप यह अवश्य कह सकते हैं कि पेड़ को काट देना उसी तरह से अपराध है, जैसे पशुओं की हत्या कर देना। तब वधिकों को यह जानकर हताशा होनी चाहिए कि लगभग सभी पशुप्रेमी और शाकाहारी ना केवल पेड़ काटने के विरोधी होते हैं, बल्कि वे तो चाहते हैं कि पृथ्वी पर हरीतिमा को ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा में बढ़ाया जाए!
अब इस कुतर्क का दूसरा फंदा देखिये। दो दिन पूर्व एक असभ्य जाति के द्वारा अपनी राक्षसी वृत्ति के वशीभूत होकर पशुबलि का सामूहिक उत्सव मनाया गया, जिसके तहत दिनदहाड़े पशुओं की हत्या की गई। क्या वो ऐसा मनुष्यों के साथ कर सकते थे? खुलेआम तो हरगिज़ नहीं! क्यों नहीं कर सकते थे? क्योंकि मनुष्य जाति ने इस झूठ पर आम सहमति बना ली है कि मनुष्यों को जीवन का अधिकार है, किंतु पशुओं को नहीं है। कि मनुष्यों की जान का मूल्य पशुओं से अधिक होता है! इसलिए मनुष्य की हत्या तो क़ानून में दण्डनीय अपराध है किंतु पशु की हत्या शुभकामना देने योग्य कृत्य है। कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्य और पशु की हत्या में अंतर है, यह अपने कुकृत्य के द्वारा सिद्ध करने के बाद वो यह फ़र्ज़ी समतुल्यता स्थापित करते हैं कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है, जबकि उनके ही तर्क से अगर चलें तो मनुष्य, पशु और वनस्पतियों में जीवन का अधिकार समान नहीं है! उनके तर्कानुसार तो पेड़-पौधों के जीवन का मूल्य पशुओं से भी कम होना चाहिए!
अब आगे देखते हैं। पेड़-पौधों का अध्ययन वनस्पति शास्त्र के तहत किया जाता है, जीव-जंतुओं का अध्ययन जीव विज्ञान के तहत किया जाता है। ये दोनों विज्ञान ही अलग हैं। पेड़-पौधों में भी जीवन होता है- कहने वाले क्या यह भी नहीं जानते? प्राणियों में स्नायु तंत्र होता है, पेड़-पौधों में नहीं होता। प्राणी चर होते हैं, पेड़-पौधे अचर होते हैं। प्राणियों में रक्त-मांस-मज्जा की एक सम्पूर्ण संरचना होती है, वो आत्मरक्षा के लिए मुखर विलाप करते हैं, उन पर अपनी संतानों के पोषण की ज़िम्मेदारी होती है-- पेड़-पौधों में यह कुछ नहीं होता। हां, पेड़-पौधों में चेतना अवश्य होती है और आधुनिक शोधों ने पाया है कि वे अपनी जड़ों के माध्यम से संवाद भी करते हैं, जिसे पीतर वोल्लेबेन ने वुड-वाइड-वेब की संज्ञा दी है। तब धन्यभाव से कृषि करना, विनत होकर पेड़ों से फल-सब्ज़ी लेना और भोजन करते समय यह प्रतिज्ञा करना कि मैंने धरती से जितना लिया है, मैं उतना ही लौटाऊंगा, एक शाकाहारी की कलंकमुक्ति के लिए पर्याप्त है। किंतु हत्या करके हडि्डयां चूसने वाले कलुषित मनुष्य के लिए तो नर्क में भी स्थान नहीं है, क्योंकि वह क्रूर तो है ही, दम्भी भी है! ग्लानि उसे छू भी नहीं पाती है!
अब एक चुटकुला सुनिए। फिर से एक न्यायालय परिसर की कल्पना करते हैं। एक व्यक्ति सैकड़ों लोगों की हत्या कर देता है। उसे न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है। उस पर हत्याओं की आरोपसिद्धि होती है। हत्यारा अपने बचाव में तर्क देता है कि न्यायाधीश महोदय, जीवाणुओं में भी जीवन होता है। आप घर से न्यायालय तक आए, उसमें करोड़ों जीवाणुओं की मृत्यु हो गई। मैंने अगर सैकड़ों मनुष्यों को मारा है तो आप भी करोड़ों जीवाणुओं के हत्यारे हैं। न्यायाधीश दयनीय दृष्टि से उसकी ओर देखता है और सोचता है कोई इतना मूर्ख और कुतर्की कैसे हो सकता है कि जीवन की सभी इकाइयों को एक पंक्ति में खड़ा कर दे, एककोशिकीय-बहुकोशिकीय, कशेरुकी-अकशेरुकी, जीव-पादप, चर-अचर का भेद ही नहीं समझे और अपने अपराध को वैध सिद्ध करने का कुत्सित प्रयास करे! इसके उपरान्त वह उसे उचित सज़ा सुना देता है। यह एक जीता-जागता, चलता-फिरता चुटकुला है!
जब प्लेग फैलता है तो लाखों की संख्या में चूहों की हत्या की जाती है। जब कोई बाघ आदमख़ोर हो जाता है तो उसे बंदूक़ की गोली से मार गिराया जाता है। जब आप पैदल चलते हैं तो आपके जाने-अनजाने ही कितने ही कीट-पतंगे कुचलकर मारे जाते हैं। इनमें से किसी की भी तुलना फ़ैक्टरी फ़ॉर्मिंग या पिशाच-पर्व के तहत पशुओं को पालकर, अमानवीय रीति से उनकी हत्या कर, तश्तरी में भोजन की तरह प्रस्तुत किए जाने से नहीं की जा सकती-- जबकि जीवन तो चूहों में भी था, आदमख़ोर बाघ में भी था, कीट-पतंगों में भी था और पेड़-पौधों में तो होता ही है। किंतु किसी कृत्य की मंशा, तात्कालिकता, स्वरूप, औचित्य : ये सभी न्यायशास्त्र के तहत अध्ययन का विषय होते हैं, और हत्यारों का तर्कशास्त्र और न्यायशास्त्र से क्या सम्बंध?
किसी बुद्धिमान व्यक्ति ने एक बार कहा था कि आप किसी अबोध बच्चे को एक सेब और एक ख़रग़ोश दीजिए। अगर वह सेब के साथ खेलने लगे और ख़रग़ोश को मारकर खाने लगे तो मैं मान लूंगा कि पशुवध और मांसभक्षण स्वाभाविक है!
इस पर मैं आगे यह भी जोड़ देना चाहूंगा कि अगर पेड़-पौधों में भी जीवन होता है, जैसे पशुओं में होता है तो आप जिस तरह से अपने बच्चों को आम के बाग़ में ले जाते हैं, उस तरह से उन्हें कभी क़त्लख़ानों में क्यों नहीं घुमाने ले जाते?
सुशोभित
Tagged: