बाजीप्रभु देशपांडे की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि स्वरूप विशेष लेख #कृपा_पूरा_पढें
मित्रों यह अनुपम कथा उस पराक्रमी योद्धा की है, जिसने हिन्दू स्वराज के सूर्य *छत्रपति शिवाजी महाराज* की रक्षा में अपने प्राणों की बाज़ी लगा दी | केवल 300 जवानों के साथ उसने 10 गुना फ़ौज को रोके रखा,जब तक शिवाजी राजे सुरक्षित स्थान पर नहीं पहुँच गए | उस वीरवर का नाम था #बाज़ी_प्रभु_देशपांडे और गजापुर की घाटी में उसने त्याग और बलिदान, शौर्य और पराक्रम की अदभुत गाथा लिखी।
#बाजी_प्रभु_देशपांडे (1615-1660) एक नामी वीर थे। मराठों के इतिहास में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
बाजीप्रभू के पिताजी, हिरडस, मावल के देश कुलकर्णी ब्राह्मण थे। इनके भाई का नाम मुरारबाजी देशमुख था वह मुगलो से पुरन्दर का किला बचाते हुए बलिदान हुये थे , वह शिवाजी महाराज के प्रमुख अंगरक्षक थे
#बाजीप्रभू की वीरता को देखकर ही महाराज #शिवाजी ने उनको अपनी युद्धसेना में उच्चपद पर रखा। ई.स. 1648 से 1649 तक उन्होंने #शिवाजी के साथ रहकर पुरंदर, कोंडाणा और राजापुर के किले जीतने में भरसक मदद की। #बाजी_प्रभु ने रोहिडा किले को मजबूत किया और आसपास के किलों को भी सुदृढ़ किया। इससे वीर #बाजी को मावलों का जबरदस्त कार्यकर्ता समझा जाने लगा। इस प्रांत में उसका प्रभुत्व हो गया और लोग उसका सम्मान करने लगे। ई. सन् 1655 में जवाली के मोर्चे में और इसके बाद डेढ़ दो वर्षों में मावला के किले को जीतने में तथा किलों की मरम्मत करने में #बाजी ने खूब परिश्रम किया। ई. सन् 1659 के नवंबर की दस तारीख को अफ़जल खाँ की मृत्यु होने के बाद पार नामक वन में आदिलशाही छावनी का नाश भी बाजी ने बड़े कौशल से किया और स्वराज्य का विस्तार करने में #शिवाजी की सहायता की। ई. सन् 1660 में मोगल, आदिलशाह और सिद्दीकी इत्यादि ने शिवाजी को चारों तरफ से घेरने का प्रयत्न किया। पन्हाला किला से निकल भागना शिवाजी के लिए अत्यंत कठिन हो गया। इस समय #बाजी_प्रभु ने उनकी सहायता की। #शिवाजी को आधी सेना देकर स्वयं #बाजी घोड की घाटी के दरवाजे में डटा रहा। तीन चार घंटों तक घनघोर युद्ध हुआ। #बाजी_प्रभु ने बड़ी वीरता दिखाई। उसका बड़ा भाई फुलाजी इस युद्ध में मारा गया। बहुत सी सेना भी मारी गई। घायल होकर भी #बाजी अपनी सेना को प्रोत्साहित करता रहा। जब #शिवाजी रोगणा पहुँचे तो उन्होंने तोप की आवाज से #बाजी_प्रभु को गढ़ में अपने सकुशल प्रवेश की सूचना दी। तोप की आवाज सुनकर स्वामी के कर्तव्य को पूरा करने के साथ 14 जुलाई 1660 ई. को इस महान वीर ने मृत्यु की गोद में सदा के लिए शरण ली।
विश्व के सैनिक इतिहास में में यह विलक्षण कारनामा है कि तीन सौ सैनिकों ने तीन हज़ार की सेना को दिन भर रोके रखा !
नतमस्तक है हम ऐसी वीर पराक्रमी योद्धा के आगे ।
शत् शत् नमन