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. ॐ श्री परमात्मने नमः

श्री गणेशाय नम:

राधे कृष्ण

अभी अर्जुन को सारा समझ नहीं आया तो उसने अगला प्रश्न किया--

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
. ( श्रीमद्भागवत गीता अ० ४-८ )

हिन्दी अनुवाद -
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ |

व्याख्या-
अर्जुन! 'साधूनाम् परित्राणाय'- परमसाध्य एकमात्र परमात्मा है, जिसके साध लेने पर कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता बल्कि कुछ भी साधने के लिए शेष नहीं रह जाता | उस साध्य में प्रवेश दिलाने वाले विवेक, वैराग्य, शम, दम इत्यादि दैवी संपद् को निर्विघ्न प्रवाहित करने के लिए तथा 'दुष्कृताम्'- जिनसे दूषित कार्यरूप लेते हैं उन काम, क्रोध, राग द्वेष आदि विजातीय प्रवृत्तियों को समूल नष्ट करने के लिए तथा धर्म को भली प्रकार स्थिर करने के लिए मै युग-युग में प्रकट होता हूँ |

यहाँ युग का आशय सतयुग, त्रेता, द्वापर या कलयुग नहीं अपितु युग धर्मों का उतार चढ़ाव मनुष्यों के स्वभाव पर है | युगधर्म सदैव रहते हैं | मानस में भी संकेत है--

निज जुग धर्म होहिं सब केरे |
हृदयँ राम माया के प्रेरे ||
( रामचरितमानस, ७/१०३ ख/१ )

युगधर्म सभी के हृदय में नित्य रहते हैं | अविद्या से नहीं बल्कि विद्या से, राममाया की प्रेरणा से हृदय में होते हैं | जिसे प्रस्तुत श्लोक में आत्ममाया कहा गया है वही राममाया है | हृदय मे राम की स्थिति दिला देने वाली, राम से प्रेरित है वह विद्या | कैसे समझा जाए कि अब कौन सा युग कार्य कर रहा है, तो 'सुद्ध सत्व समता बिज्ञाना | कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ||' ( रामचरितमानस, ७/१०३ ख/२ ) जब हृदय में शुद्ध सत्वगुण ही कार्यरत हों, राजस तथा तमस दोनो गुण शांत हो जाएँ, विषमताएँ समाप्त हो गई हों, जिसका किसी से द्वेष न हो, विज्ञान हो अर्थात् ईष्ट से निर्देशन लेने और उसपर टिकने की क्षमता हो, मन में प्रसन्नता का पूर्ण संचार हो- जब ऐसी योग्यता आ जाए तो सतयुग में प्रवेश मिल गया समझो |
एक सत्र के लिए ज्यादा हो रहा है अतः शेष अगले सत्र मे मित्रों |

हरि ॐ तत्सत् हरि:।

ॐ गुं गुरुवे नम:

राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे, तैरी सदा हि जय हो माते |

शुभ हो दिन रात सभी के।