जय माँ
संसार का स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ। क्रिया और पदार्थ‒दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है। मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है। जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसार की सेवा में ही हो सकता है। अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है। कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है। जो वस्तु अपनी नहीं होती, वह अपने लिये भी नहीं होती। अपनी वस्तु वह होती है, जिस पर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पाने के बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहे परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई वस्तुओं पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता। हम अपनी इच्छा के अनुसार उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते। उनकी प्राप्ति के बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात् अभाव बना रहता है। इस अभाव की कभी पूर्ति नहीं होती इसलिये साधक को चाहिये कि वह इस सत्य को स्वीकार करे कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है।
जगदम्ब भवानी