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जय माँ
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गुरुमंत्र का जप कल्पवृक्ष के समान है, इस नाममंत्र को जपने से जीव पूर्णकाम हो जाता है और उसमें कोई इच्छा शेष नहीं बचती है। यह नामरूपी कल्पवृक्ष कलियुग के कराल कष्टों का हरण करने वाला तथा सर्वसुखों का दाता है। इस मंत्र से ही जीव का कल्याण होता है। इस नाममंत्र के अहर्निश जाप से आत्मज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है। इतिहास में ऐसे अनेक प्रमाण भरे पड़े हैं कि जहाँ पापकर्मों में लिप्त जन भी केवल इस नाममंत्र के सहारे सुपथगामी बने हैं, फिर चाहे वे वाल्मीकि हों अथवा अजामिल। नाममंत्र की साधना से मनुष्य को अपने वास्तविक रूप का ज्ञान होता है और वह इस लोक में ही नहीं अपितु तीनों लोकों में सम्मान पाता है।

जैसे बाहरी शोर-शराबे से वातावरण की शांति भंग होती है, वैसे ही विचारों की अनियंत्रित श्रंखला‌ओं से मन की शांति भी भंग होती है। विचारों की उधेड़-बुन में मन सदा उलझा रहता है और आनंद के धरातल तक नहीं पहुँच पाता है। इन विचारों का जन्म मनुष्य की चेष्टा‌ओं एवं वृत्तियों के अनुरूप ही होता है। मनुष्य की चेष्टायें व वृत्तियाँ उन्हीं विषयों की ओर संचालित होती है, जहाँ उसकी चाह होती है। भोग-वासना‌ओं, अहंकार, सांसारिक-रिश्तों व धन लोलुपता में फँसी हु‌ई चाह ही मनुष्य में काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि पैदा करती है। काम, क्रोध, मोह व लोभ जीवन की ऐसी रिक्ततायें हैं जो अनंत जन्मों में भी पूरी नहीं होती हैं। इनसे अपने जीवन को मुक्त करना ही शांति व आनंद प्राप्त करने का सूत्र है। श्रीसद्‌गुरु महाराज द्वारा दिया गया गुरुमंत्र ही वह अमोघ अस्त्र है जो जीव की वृत्तियों को अंतर्मुखी बनाता है और अंदर के उस अक्षय आनंद के स्रोत से जोड़ता है जहाँ जीव पूर्णता को प्राप्त होता है। श्रीसद्‌गुरु महाराज ही इस अक्षय आनंद के स्रोत हैं और उनसे जुड़ने का एकमात्र साधन गुरुमंत्र ही है। गुरुमंत्र का जप व भजन बुद्धि के तल पर संपादित होने वाली क्रियाएँ‌ नहीं हैं अपितु ये तो हृदय के भावों में चलने वाली साधना है। श्रद्धा व समर्पण भावों से ही नामजप व भजन साधना का पोषण होता है। गुरु के द्वारा दीक्षा में दिये गये नाममंत्र के जप से गुरुभक्ति का जागरण होता है और शिष्य के मन में श्रद्धाभाव, निष्ठा व भक्ति सहज रूप से पनपती हैं। ज्यों-ज्यों भजन व भक्ति की प्रगाढ़ता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे शिष्य की चेतना गुरु की ओर प्रवाहित होने लगती है तथा गुरु के ध्यान में विलीन होती जाती है।

सुख इन्द्रिय स्तर पर घटित होता है और परिस्थितियों के आधार पर घटता-बढ़ता रहता है, जबकि आनंद आत्मिक स्तर पर घटित होने वाली दिव्य चेतना की अनुभूति है। आनंद हर काल व परिस्थिति में एक समान होता है। सुख की सीमा होती है जबकि आनंद असीम होता है। आनंद पूर्णतः आन्तरिक विषय है और वर्णनातीत है। जब जीवन को मन के मुताबिक जिया जाता है तो सुख व दुख की अवस्था आती हैं। मन जो चाहता है उसे प्राप्त कर लेने में सुख की प्रतीति होती है और उसके न मिलने पर दुख होता है। इस तरह सुख व दुख एक ही घटना के दो पहलू है। इसके विपरीत जब जीवन को सद्‌गुरु की मौज में समर्पित कर दिया जाता है, तो मन की अदाकारी समाप्त हो जाती है, अमन की यही अवस्था आनंद है। सुख-दुख मन की इच्छा‌ओं पर आश्रित होते है जबकि आनंद मन के परे पहुँची चेतना की अवस्था है। जब तक मन सक्रिय रहता है, आनंद घटित नहीं होता है। मन की चंचलता को मिटाकर उसे स्थिर करना और फिर चेतना को मन के परे ले जाना ही ध्यान है। ध्यान एक सचेतन अवस्था अर्थात् होशमय अवस्था है और परम चैतन्य श्री सद्‌गुरु महाराज की दया से ही उपलब्ध होता है।
जगदम्ब भवानी