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जिस प्रकार पालि साहित्य में देवा= का अर्थ अरहन्त,बुद्ध है।
उसी प्रकार -
#बाह्मण=ब्राह्मण= स्मृतिवान, शीलवान,स्थितप्रज्ञ।
#समणोति=श्रमण= समता आचरण वाला।
#वेदगुति= अनुभवों की अवस्था,ज्ञानी,प्रज्ञानी।
#विमोक्तोति= विमुक्त अवस्था वाला।
ये सारे शब्द तथागत अरहन्त सम्यक समबुद्ध के पर्यायवाची है, सामान अर्थो वाले है। (#अ०नि० 3.8.85 समणसुत्त)
#इसी अर्थो में #श्रमण,#ब्राह्मण ,#देवा शब्दो का प्रयोग सम्राट अशोक के #शिलालेखो में भी हुवा है।
#एक सम्यक समबुद्ध और दूसरे सम्यक समबुद्ध के बीच लम्बे समय का अन्तराल होने से शब्द छनते हुए चले आते है, परन्तु उनका सही अर्थ भुला दिया जाता है। कभी-कभी उनका दुरूपयोग भी होने लगता है।
#ऐसा ही दुरूपयोग गौतम बुद्ध के जन्म से पहले ईरानी जेद-अवेस्तानो ने भारत के गरिमामय शब्दो के साथ किया।
#ईरानी आर्यो का आगमन भारत में धीरे-धीरे और बड़े छद्म प्रकार से हुवा है, इसका प्रमाण पालि साहित्य के विनयपिटक में मौजूद है। पालि भाषा के विरुद्ध छंदस्स भाषा के प्रयोग पर रोक।
#पालि-साहित्य के ब्राह्मणधम्मिकसुत्त के अनुसार देश में पहले हिंसामय यज्ञ-मंत्र ओकाक राजा (800 ईसा०पु०) के समय गढ़े गए थे।
यही वो समय था जब अपने देश में ईरानियों द्वारा वर्ण व्यस्था,हिंसामय यग्यो का पहला सूत्रपात ईरानी छन्दस्स भाषावो में गढा गया। जो ईरानी राजा दारा प्रथम (532ईसा०पु०) तक मजबूत हो रहे थे। वही गौतम बुद्ध के समय तक अपना जड़ जमा चुके थे।
#अब मनुष्यो के कम्म(कर्म) के जगह जाति(जन्म) प्रमुख हो गया।
जब किसी व्यक्ति की बोधि जागती है,तो उनसे पहले के बुद्धों के जो शब्द चले आते है उनमें आयी दूषणता को दूर करते है। देखे धम्मपद का पूरा ब्राह्मण वग्ग,पालि साहित्य में जगह-जगह उसके बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे।
यह्महि न माया वसति..सो ब्राह्मणों सो समणो स भिक्खुति।।
(26,#मिलिन्दच्छसुत्त)
#जिसमे न माया है, न अभिमान है, जो निर्लोभ है, आसक्ति और तृष्णा से रहित है, जो क्रोधमुक्त है,जो निर्वाण-प्राप्त है वही ब्राह्मण है, वाही श्रमण है, वही भिक्षु है।