Prayer ,faith heling: The real tragedy is
people that are helped by this don't realize that this power comes from within brain not
God
भारत में हर साल औसतन डेढ़ लाख लोग सिर्फ़ सड़क हादसों में मारे जाते हैं अर्थात रोज़ करीब 400 लोग.
मरने वालों में 90 फ़ीसदी लोग धार्मिक होते हैं, जिनको विश्वास होता है कि उनका भगवान, अल्लाह, देवी-देवते, संत, बाबा, गुरू वगैरह हमेशा उनके साथ हैं, और वे उनको कुछ नहीं होने देंगे.
हादिसे में जो बच जाते हैं, वे कहते हैं कि भगवान ने बचा लिया, उनकी अंधश्रद्धा और मज़बूत हो जाती है. ऐसे मूर्ख भूल जाते हैं कि मरने वालों का भी कोई भगवान था.
मरने वालों में बहुत बड़ी गिनती उन श्रद्धालुओं की होती है, जो किसी धार्मिक स्थान की यात्रा करने जा रहे होते हैं या आ रहे होते हैं. दर्शन करने या मुरादें मांगने गये श्रद्धालु क्यों बेमौत मारे जाते हैं या अपंग हो जाते हैं ? ऐसे सवाल अपंग दिमाग़ों में पैदा हो जाते तो धार्मिक स्थानों की भीड़ कम हो जाती.
अगर केदारनाथ में हर साल हज़ारों श्रद्धालु मारे जायें, अगर कुंभ मेले में हर बार भगदड़ में हज़ारों लोग मारे जायें, अगर अमरनाथ यात्रा पे हर साल आतंकवादी हमले होने लगें, अगर मक़्क़ा में हर साल भगदड़ में हज़ारों हाज़ी मारे जायें तो क्या धार्मिक यात्रायें बंद हो जायेंगी ? क्या लोगों के अंधविश्वास कम हो जायेंगे ? क्या उनके अंदर कोई सवाल पैदा होगा ?
ऐसा कुछ होना होता तो सदियों पहले ही लोग समझदार हो गये होते. श्रद्धा और समझ एक-दूसरे के विरोधी शब्द हैं. श्रद्धा दिमाग़ को ब्लॉक कर देती है.
जब तक हादसों से सबक़ नहीं लिये जाते, जब तक सुधार की कोशिश नहीं होगी, हादिसे होते रहेंगे.
हर हादिसे से सियासी गिद्धों को नोचने के लिये लाशें मिल जाती हैं. वे दुखी नहीं होते, बल्कि ख़ुश होते हैं.
जिनके अपने मर जाते हैं, वे मृतकों का धार्मिक रीती-रिवाज से अंतिम संस्कार करते हैं, उनकी आत्मा की शांति के लिये पूजा-पाठ करते हैं, मुआवजा लेते हैं और बस.
मीडिया और सोशल मीडिया को दो-चार दिन मुद्दा मिल जाता है,
रावण दहन के मौके पे जो हादिसा हुआ,
उससे कुछ जातिवादी लोगों को लगा कि मरने वाले सारे कथित सवर्ण जाति के थे, कुछ नास्तिकों को लगा कि मरने वाले सब आस्तिक थे, कुछ को दुख हुआ कि ट्रेन से नमाज़ पढ़ रहे लोग क्यों नहीं मरते ? कुछ को सकून मिला कि हिन्दू मारे गये.
ऐसे मनोरोगी ये नहीं सोचते कि ज़्यादातर लोग मनोरंजन के लिये रावण दहन देखने जाते हैं, बहुत सारे माँ-बाप बच्चों के लिये जाते हैं, इसका आस्था या अंधविश्वास से संबंध नहीं है. इसमें हर जाति, वर्ग, धर्म के लोग हो सकते हैं, इसको आस्तिक-नास्तिक, जाति, धर्म के नज़रिये से देखना हद दर्ज़े की मूर्खता है.
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अगर मैं आस्तिक होता तो कहता कि होनी को कोई टाल नहीं सकता, किसको, कब, कहाँ, कैसे मरना है, ये सब ऊपरवाले ने पहले तय किया होता है, उसने लिख रखा था कि दर्ज़नों बच्चों, औरतों, मर्दों के जिस्मों के टुकड़े-टुकड़े होंगे, दर्ज़नों लोग लूले-लँगड़े, अपंग हो जायेंगे.. वह जो करता है, अच्छा करता है, वह महान और रहमदिल है.. भगवान मरने वालों की आत्मा को शांति दे.. अल्लाह उनको जन्नत नसीब करे.. आमीन.
लेकिन मैं नास्तिक इन्सान हूँ, मेरे नज़रिये से ऐसे हादिसे टाले जा सकते हैं, ये हादिसा प्रशासन, आयोजकों और लोगों की लापरवाही से हुआ है. इस हादिसे से बहुत बड़े सबक़ सीखने चाहिये ताकि दोबारा ऐसे दर्दनाक हादसे न हों.
किसी भी जाति, धर्म, पार्टी या देश का इन्सान हो, वह हमारी तरह इन्सान ही होता है, किसी निर्दोष इन्सान का बेमौत मरना दुखदायक होता है. लाशें देखकर गिद्ध ख़ुश होते हैं, इन्सान नहीं.
हमेशा ग़ैर नहीं मरते, अपने भी मरते हैं...
भीड़ समझदार नहीं होती, यहां भी भीड़ होगी, वहाँ बुरा होने की संभावना होती है, ख़ुद को और अपने परिवार को भीड़ से दूर रखना चाहिये.
धर्मों ने इन्सानों को भेड़ों की भीड़ बना दिया, इन भेड़ों को फिर से इन्सान बनाने की ज़रूरत है...
इंजी.रवि कान्त कौशल
अलीगढ़ उत्तर प्रदेश
मो.9410848459 ।
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