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ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति के बुनियादी लक्षण क्या हैं?

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By National India News On Jun 10, 2019



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भारत में उत्तर से लेकर (एक हद  तक) दक्षिण तक और पूरब ले लेकर पश्चिम तक आर.एस.एस. (संघ), भाजपा एवं अन्य आनुषांगिक संगठनों और कार्पोरेट घरानों की विजय और उनका वर्चस्व केवल एक राजनीतिक और आर्थिक परिघटना नहीं है, बल्कि उससे कहीं ज्यादा गहरे व्यापक स्तर पर यह एक सांस्कृतिक परिघटना भी है, जिसने उस मनःस्थिति और चेतना का निर्माण किया, जिसके चलते   सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर देश के  हिंदूकरण (ब्राह्मणीकरण)  और विकास के नाम पर कार्पोरेटाइजेशन (पूंजी की लूट को खुली छूट) का मार्ग प्रशस्त हुआ।

आखिर ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति या द्विज भारतीय संस्कृति है क्या?, जिस पर अधिकांश भारतीयों को गर्व है, उसे ‘हिन्दू संस्कृति’ कहते हैं, उसे सनातन संस्कृति, वैदिक संस्कृति, आर्य संस्कृति तथा द्विज संस्कृति के नाम से भी पुकारा जाता है। इस संस्कृति के गौरव-ग्रन्थ आदिकवि वाल्मीकि के ‘रामायण’ से लेकर तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ तक हैं। वेद, पुराण, स्मृतियाँ, संहितायें इसके पूजनीय ग्रन्थ हैं। वेदों के रचयिता तथाकथित ऋषियों से लेकर स्मृतियों के रचयिता गौतम, मनु, नारद, याज्ञवल्क्य, तथा शंकराचार्य इसके महान पूजनीय नायक हैं। जब-जब इस संस्कृति को कोई खतरा पैदा हुआ है, स्वयं तथाकथित ईश्वर ने अवतार लेकर (राम एवं कृष्ण) इसकी रक्षा की है। आधुनिक युग में तिलक, गाँधी तथा इस देश के प्रथम राष्ट्रपति इसके सबसे बड़े रक्षक के रूप में सामने आते रहे हैं। इस संस्कृति की रीढ़ है, वर्णव्यवस्था, जाति व्यवस्था तथा जातिवादी पितृसत्ता, जिसके अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने चारों वर्णों की रचना की। 

ब्राह्मणों को अपने मुँह से पैदा किया तथा मेहनतकश शूद्रों को अपने पैर से। पता नहीं स्त्रियों को कहाँ से पैदा किया, यह तो वही जाने या हो सकता है उनके ऋषियों-महात्माओं को पता हो। इस संस्कृति को, इसके असली चरित्र एवं रूप को ढँकने के लिए जाने या अनजाने में यूरोपीय नाम ‘सामन्ती संस्कृति’ भी कुछ लोग कहते रहे हैं। इसको इसके असली नाम से पुकारा जाना चाहिए जो इसके अन्तर्य एवं रूप को ठीक-ठीक प्रकट करता है और वह नाम है मनुवादी-ब्राह्मणवादी संस्कृति। इस संस्कृति का जन्मजात बुनियादी लक्षण है कि हर व्यक्ति जन्म से ऊँच या नीच पैदा होता है अर्थात् किसी से ऊँच तथा किसी से नीच पैदा होता है। परत-दर-परत उंच-नीच का श्रेणीक्रम चार वर्णों में सबसे ऊँचा वर्ण है ‘ब्राह्मण’ तथा सबसे नीचा वर्ण है ‘शूद्र’। बाद में ब्राह्मणों ने और एक वर्ण  बना दिया, जिसे उन्होंने महानीच की श्रेणी में डाल दिया। जिसे ‘अन्त्यज’ कहा गया तथा जिसकी छाया के स्पर्श से भी अन्य लोग दूषित हो जाते हैं। स्त्री को  भी नीचों में शामिल कर दिया गया। ‘नीच’ होने के जितने पैमाने शूद्रों-अन्त्यजों के लिए थे, उनमें से अधिकांश स्त्रियों पर भी लागू होते हैं।

इस संस्कृति की सबसे पहली बुनियादी विशेषता है- श्रम, विशेषकर शारीरिक श्रम करने वालों से घृणा। कौन कितना और किस प्रकार का शारीरिक श्रम करता है, उसी से तय हो जायेगा कि वह कितना नीच है। इस विशिष्टता का दूसरा पहलू यह है- जो व्यक्ति शारीरिक श्रम से जितना ही दूर है अर्थात् जितना बड़ा परजीवी है, वह उतना ही महान एवं श्रेष्ठ है। ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ एवं महान है क्योंकि उसके जिम्मे किसी प्रकार का शारीरिक श्रम नहीं था। मेहतर समुदाय सबसे घृणित क्योंकि वह बिष्ठा एवं गन्दगी साफ करता है। बिष्ठा एवं गन्दगी करने वाले  महान तथा साफ करने वाले नीच। ‘चमार’ नीच क्योंकि वह हरवाही करता था अर्थात् उत्पादन-सम्बन्धी सारे श्रम वही करता था। उत्पादक नीच और बैठकर खाने वाले द्विज परजीवी, महान। कपड़ा गंदा करने वाले, महान तथा उसे साफ कर देने वाले धोबी, नीच। बाल तथा नाखून काटकर इंसान को इंसानी रूप देने वाला नाऊ नीच, वे लोग ऊँच। यही बात सभी श्रम-आधारित पेशों पर लागू होती रही है।

घर में स्त्री पुरुष से नीच, क्योंकि वह बच्चे से बूढ़ों तक की गूह-गन्दगी साफ करती है। धोबी का भी काम करती है, कपड़े धुलती है, घर की सफाई करती है, खाना बनाती है। जैविक उत्पादन(बच्चे जनती है) करती है, और ‘महान’ पुरुषों को अन्य सुख प्रदान करती है। इसलिए स्त्री, पुरुषों से नीच तथा उनके अधीन। शूद्र द्विजों से नीच तथा उनके अधीन। मनुवादी-ब्राह्मणवादी संस्कृति की दूसरी विशेषता है कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के समान नहीं हो सकता अर्थात् समानता की अवधारणा का पूर्ण निषेध। चार वर्णों में सभी एक दूसरे से ऊँच या नीच हैं। चारों वर्णों में शामिल हजारों जातियाँ एक दूसरे से ऊँच-नीच हैं। परिवार में ऊँच-नीच का श्रेणीक्रम बना हुआ है। इस संस्कृति में गर्ग गोत्र के शुक्ल सबसे ऊँच है, लेकिन स्थान-विशेष के शुक्ल दूसरी जगह के शुक्ल से नीच हैं या ऊँच है। सबसे निचली कही जाने वाली जातियों में शामिल ‘चमारों’ में भी उत्तरहा तथा दखिनहा हैं। उत्तरहा दखिनहा से ऊँच हैं। बाभनों में भी नान्ह जाति के रूप में चौबे-उपधिया हैं। इनका अपराध यह है कि ये अपने खेतों में शारीरिक श्रम करते हैं। असमानता या गैर-बराबरी इसके केन्द्र में है। इस संस्कृति की तीसरी विशेषता है, अधीनता। ब्रह्मा ने शूद्रों-अन्त्यजों तथा स्त्रियों को क्रमशः द्विजों(सवर्णों) तथा पुरुषों के अधीन बनाकर भेजा है। शूद्रों-अन्त्यजों तथा स्त्रियों का दैवीय कर्तव्य है कि वे सवर्णों तथा पुरुषों की आज्ञा का पालन करें तथा उनकी सेवा करें। अधीनता की इस व्यवस्था का उल्लंघन करने का अर्थ है- ईश्वरीय विधान का उल्लंघन। इस संस्कृति की चौथी विशेषता है- अतार्किकता। जन्मजात श्रेष्ठता का कोई तार्किक आधार नहीं है। लेकिन महान से महान वैज्ञानिक, प्रोफेसर, न्यायाधीश, वकील, डॉक्टर, पत्रकार, राजनेता तथा अन्य ज्ञानीजन अपनी जन्मजात जातीय श्रेष्ठता के दम्भ में फूले हर कहीं मौजूद हैं। सोचने का यह तरीका तार्किकता की बुनियाद को ही खोखला कर देता है। अलोकतान्त्रिक सोच इसकी पाँचवीं विशेषता है। जातीय तथा लैंगिक श्रेष्ठता और निकृष्टता की भावना, इस संस्कृति की रीढ़ है। जनवाद तथा लोकतान्त्रिक भावना की अनिवार्य शर्त है- इंसान-इंसान के बीच मनुष्य होने के चलते बराबरी का भाव। बराबरी के इस भाव के बिना जनवादी या लोकतान्त्रिक विचार-भाव की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सरोकारहीनता तथा असंवेदनशीलता इस संस्कृति की छठी विशेषता है। जब यहाँ एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को मनुष्य के रूप में देखने की जगह जाति-विशेष या लिंग-विशेष के रूप देखता है तो गहरी मानवीय संवेदनशीलता की जमीन ही कमजोर पड़ जाती है। एक दूसरे के प्रति इतनी सरोकारहीनता शायद ही किसी समाज में मौजूद हो। इस संस्कृति की सातवीं विशेषता है- जो जितना शारीरिक श्रम करे, उसे उतना ही कम खाने-जीने का साधन प्रदान किया जाए तथा जो जितना ही शारीरिक श्रम से दूर रहे, उसे उतना ही बेहतर भोजन तथा जीवन जीने के अन्य साधन प्रदान किए जाएँ। मेहनत करने वाला उत्पादक भूखा जीने को विवश तथा श्रम से दूर, खून चूसने वाला खा के आघाया हुआ। वर्णव्यवस्था-जातिवाद के साथ ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति की दूसरी बुनियादी अभिलाक्षणिकता है- जातिवादी पितृसत्ता। इसकी पहली विशेषता है कि पुरुष श्रेष्ठ तथा स्त्री दोयम दर्जे की है। पुरुष-श्रेष्ठता की इस संस्कृति का ही परिणाम है- पुत्र लालसा जिसके चलते हर वर्ष लाखों लड़कियों को गर्भ में पहचान कर मार दिया जाता है, इस अपराध के लिए कि उनका लिंग स्त्री का है। यह सर्वव्यापी संस्कृति है। मारने वालों में शिक्षित-अशिक्षित, ब्राह्मण-दलित, शहरी-ग्रामीण तथा पुरुष-स्त्री सभी शामिल हैं। सर्वश्रेष्ठ ज्ञान-सम्पन्न और तथाकथित महान लोग इन हत्यारों में शामिल हैं। यह संस्कृति स्त्री को भोग की वस्तु समझती है। स्त्री तथा स्त्री की योनि इसके सम्मान एवं प्रतिष्ठा की सबसे बड़ी वस्तुएँ हैं। यह स्त्री को किसी प्रकार का जनवादी या बराबरी का हक देने को तैयार नहीं है। स्त्री क्या पहनेगी, कैसे बोलेगी, कैसे चलेगी, किससे बात करेगी, किससे नहीं बात करेगी, और सबसे बड़ा अधिकार किसे अपना जीवन साथी चुनेगी अर्थात् किससे शादी करेगी, यह संस्कृति यह सारा अधिकार पुरुष समाज को प्रदान करती है। उसका पिता, पति, भाई, चाचा या बेटा अर्थात् घर का पुरुष यह तय करेगा कि वह क्या करेगी और क्या नहीं करेगी। यदि वह इसका उल्लंघन करती है, बराबरी के अधिकारों की माँग करती है तो हिंसा की शिकार बनेगी, उसे पीटा जाएगा। यदि वह अपनी मनपसन्द के लड़के से प्रेम करने या शादी करने की जुर्रत करेगी तो मार डाली जायेगी(ऑनर किलिंग), प्रेम करने से इंकार करेगी तो उसके ऊपर तेजाब फेंका जाएगा या उसकी हत्या कर दी जाएगी। यहाँ तक कि उसे अपने शरीर पर भी हक प्राप्त नहीं। यदि वह पति से शारीरिक सम्बन्ध बनाने से इंकार करती है तो वह उसके साथ जबर्दस्ती शारीरिक सम्बन्ध बना सकता है अर्थात् बलात्कार कर सकता है। भारतीय कानून इसको बलात्कार नहीं मानता। भारत सरकार इस कानून को बदलने के लिए तैयार नहीं है। यह तो घर की हालत है, बाहर दरिंदे कभी भी उसके ऊपर हमला बोल सकते हैं, उसके साथ बलात्कार, सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर सकते हैं।

समाजशास्त्री कहते हैं कि स्त्री के सतीत्व अर्थात् यौनशुचिता की अवधारणा निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के साथ आयी थी अर्थात् यदि निजी सम्पत्ति का मालिक अपने असली वारिस को अपनी सम्पत्ति सौंपना चाहता है तो स्त्री का उसके प्रति पूर्णतया एकनिष्ठ होना अनिवार्य है, वह स्वयं भले ही व्यभिचारी हो। लेकिन भारत में स्त्री की इस काम के अलावा एक दूसरी बड़ी जिम्मेदारी है- जातीय रक्त शुद्धता की रक्षा करना। इसकी अनिवार्य शर्त है- स्त्री अपनी जाति के बाहर के किसी पुरुष से प्रेम न करे, शादी न करे तथा शारीरिक सम्बन्ध न बनाये।

जाति रक्षा तथा योनि रक्षा ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति के दो सबसे बुनियादी मूल्य हैं। डॉ. लोहिया ने कहा था कि हिन्दुओं का दिमाग जाति तथा योनि के कटघरे में क़ैद है। इस समाज का दिमाग तब तक मुक्त नहीं हो सकता है, जब तक इस कटघरे को तोड़ न दिया जाए। वेद, पुराण, संहिताएँ तथा स्मृतियाँ ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति, जाति एवं जातिवादी पितृसत्ता की महानता का एक स्वर से गुणगान करती हैं। कौटिल्य, वेदव्यास, वाल्मीकि, गौतम, नारद, मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर, शंकराचार्य इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। आधुनिक युग के तथाकथित महानायक इस पर गर्व करते हैं। तथाकथित राष्ट्रपिता तथा महात्मा गाँधी सारतः तथा मूलतः इसे जायज ठहराते हैं। स्वतन्त्र देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जाति तथा पितृसत्ता को तोड़ने की कानूनी कोशिश, अन्तर्जातीय विवाह तथा माता-पिता की अनुमति के बिना बालिग लड़के-लड़कियों को मनमर्जी से शादी करने का कानूनी अधिकार (हिन्दू कोड बिल के माध्यम से) देने को भारतीय संस्कृति तथा पवित्र परिवार-व्यवस्था को नष्ट करने का प्रयास मानते थे। क्या ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति की जातिवाद तथा पितृसत्ता-सम्बन्धी विशिष्टतायें अतीत की वस्तु बन गयी हैं? उसका उत्तर है बिल्कुल नहीं। कोई भी व्यक्ति जो व्यापक भारतीय जीवन-यथार्थ को देखता और समझता है वह बिना किसी सन्देह के कह सकता है कि भारतीय समाज का बहुलांश सार रूप में इन्हीं दो मूल्यों से बुनियादी तौर पर संचालित होता है। जाति और पितृसत्ता हिन्दू समाज का बुनियादी व्यवहारिक सच है। हाँ, इसमें साम्राज्यवादी पतनशील संस्कृति भी घुसपैठ कर गयी है। इसमें मात्रात्मक तथा रूपगत परिवर्तन आये हैं लेकिन इससे सार में गुणात्मक फर्क नहीं पड़ा है। साम्राज्यवादी पतनशील संस्कृति ने इसके सार एवं रूप को और ज्यादा विकृत एवं घिनौना बना दिया है। इसका मनुष्य-विरोधी रूप और ज्यादा घृणित एवं वीभत्स हो गया है।

जाति और जातिवादी पितृसत्ता ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति की जन्मजात बुनियादी विशेषता रही है। कालक्रम में इसमें एक और मनुष्य-विरोधी घृणित विचार एवं मूल्य जुड़ गया है जिसका आन्तरिक तत्व है- साम्प्रदायिक वैमनस्य, साम्प्रदायिक घृणा का विचार एवं मूल्य। मुसलमानों-ईसाइयों के खिलाफ नफरत, घृणा एवं वैमनस्य आज ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति का सबसे ऊपर दिखने वाला तत्व बन गया है। इन दोनों के खिलाफ घृणा, नफरत एवं दंगे के माध्यम से यह संस्कृति हिन्दू एकता के नाम पर अपने जातिवादी-पितृसत्तावादी घृणित मनुष्यविरोधी मूल्यों को ढँकना चाहती है। जबकि ये दोनों इसकी रीढ़ हैं। डॉ. अम्बेडकर ने बिल्कुल ठीक कहा था कि जाति व्यवस्था के खात्मे के साथ ही हिन्दू धर्म का भी खात्मा हो जायेगा, क्योंकि वही इसका प्राण-तत्व है। मुसलमानों तथा ईसाईयों के प्रति घृणा, विशेषकर मुसलमानों के प्रति घृणा के पीछे धार्मिक विद्वेष के साथ ही दो अन्य तत्व काम करते हैं। पहला, अधिकांश मुसलमानों का इस्लाम धर्म-ग्रहण करने से पहले वर्ण-व्यवस्था में शूद्र या अन्त्यज होना, दूसरा अधिकांश मुसलमानों का गरीब होना अर्थात् शारीरिक श्रम करना। दूसरे शब्दों में कहे तो मुसलमानों के प्रति घृणा के पीछे धार्मिक विद्वेष के साथ ही, जातीय तथा वर्गीय घृणा भी छिपी हुई है। हिन्दू संस्कृति में मुसलमानों के प्रति घृणा कितनी गहरी है इसका प्रमाण गुजरात नरसंहार में मिला। जहाँ खुलेआम भीड़ के बीच एक माँ बनने वाली स्त्री के साथ बलात्कार किया गया, उसका पेट फाड़ा गया है। बाद में, हिन्दुवादियों का घिनौना स्त्री-विरोधी चेहरा मुजफ्फरनगर दंगो में सामने आया जब गाँव के ही लोग जिन्हें कल तक मुस्लिम स्त्रियाँ अपना चाचा, ताऊ, भाई, बेटा कहकर पुकारती थीं, उनके साथ सामूहिक बलात्कार करने में इन ताऊओं, चाचाओं, बेटों, भाईयों को कोई शर्म नहीं आयी। शर्म की जगह गर्व की अनुभूति हुई। वे आज भी गर्व से फूले घूम रहे हैं, कई तो सांसद बन गये।

ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति के विनाश के बिना स्वतंत्रता, समता और न्याय पर आधारित भारत का निर्माण नहीं किया जा सकता है।

लेखक- सिद्धार्थ आर, वरिष्ठ पत्रकार और लेखक व संपादक, हिंदी फॉरवर्ड प्रेस. सिद्धार्थ जी नेशनल इंडिया न्यूज को भी अपने लेखों के जरिए लगातार सेवा दे रहे हैं।

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