'शिवत्व की बावड़ी में ध्यान की सीढ़ियां हैं। छोटी-सकरी सीढ़ियां। यह कोई आम बावड़ी नहीं है। मायावी भूलभुलैया है। सब भटक जाते हैं। शाश्वत तक पहुंचना इतना आसान होता तो क्या बात थी! इस मायावी बावड़ी का तोड़ है- गुरु । गुरु कोई व्यक्ति नहीं, कोई मनुष्य नहीं। जो आंखें गुरु को मानव रूप में देखती है, वो आँखें अब तक खुली ही नहीं। गुरु की पदवी पर आसित होना तभी संभव है जब आपके भीतर शिवत्व जाग गया हो। गुरु में शिव पूर्ण रूप से विद्यमान होता है। गुरु मनुष्य नहीं, एक चेतना है जिसका मकसद आपकी चेतना को जगा कर आपको चैतन्य करना है। आत्म-साक्षात्कार के बाद "मैं" नहीं रह जाता। मनुष्य "मैं" से परे हो जाता है- देह में रह कर मृत्यु में समा जाता है। इसी मृत्यु के बाद उसके अंदर शिव जागते हैं। फिर उस मनुष्य देह में बस शिव रहते हैं- कोई मानवीय आत्मा नहीं। "खुद" से "खुदा" होना होता है। तो अगली बार जब आप अपने गुरु को देखें तो ज्ञात रहे कि मनुष्य को नहीं देख रहे आप! आपके सामने मानव देह में परम चेतना है। स्वयं शिव हैं। गुरु क्योंकि चेतना हैं इसलिए ज़रूरी नहीं कि गुरु मनुष्य तन में ही हो। प्रकृति भी गुरु हो सकती है। आपकी खुद की आत्मा भी आपकी गुरु हो सकती है। गुरु कोई भी हो, पर होना ज़रूरी है। क्योंकि शिवत्व की बावड़ी का तोड़ ही गुरु है। गुरु ही ध्यान की उन छोटी- सकरी सीढ़ियों पर से आपका हाथ थाम कर आपको नीचे गहरे पानी में ले जाएगा। बावड़ी में जो पानी है, वही प्रेम है। ध्यान अंत नहीं- बस मार्ग है। डूबना तो उसके बाद पड़ता है- प्रेम में।
ध्यान की पराकाष्ठा है प्रेम। जब ध्यान में कुछ करने को ना बचे, यहां तक कि आप खुद ना बचे, तब ध्यान अपनी चरम पर होता है। इसी चरम से प्रेम की शुरुआत होती है। ज़मीनी इश्क़ फीका पड़ जाता है इस परम प्रेम के सामने। प्रेम में डूब कर, उसकी गहराइयों को खुद में उतारकर ही आगे का रास्ता संभव हो पायेगा। ज्ञानी कहते हैं- "गुरु बस एक जरिया है। हम ज्ञानी नहीं। प्रेमी है। गुरु जैसे महा-चेतना को "ज़रिया" शब्द में सीमित नहीं किया जा सकता। गुरु के आगे ईश्वर! इतना द्वैत-भाव प्रेम के अभाव में ही संभव है। गुरु में ईश्वर की पूर्णता होती है। वरना वो गुरु नहीं होते। "ज्ञान लेकर गुरु को छोड़ कर आगे बढ़ जाना".... यहां भी सौदा? सत-चित्त-आनंद को खरीदना चाह रहे हो? अद्वैत है गुरु और ईश्वर- अभेद। अद्वैत है ईश्वर और तुम- अभेद। अपने "खुद" के दायरे से ऊपर उठना है और अपने अंदर के "खुदा" को पहचानना है।
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