यथार्थ:
मैं जाननहार तो हूँ, मगर मैं अतिन्द्रियज्ञानमय जाननहार हूँ ।
मैं श्रुत को जानने के भुतकाल में भी अतिन्द्रियज्ञानमय था, और वर्तमान अवधि को जानने में भी अतिन्द्रियज्ञानमय हूँ और भविष्य में मन:पर्याय एवं केवल्य को जानने में भी अतिन्द्रियज्ञानमय रहूँगा। मैंने कभी भी ज्ञेयो या इन्द्रियों से जाना ही नहीं है । मेरा जानने का संवेदन (प्रकाश) मेरे ही (स्वच्छ) आत्मप्रदेशों में स्पंदन हो रहा है, से उठ रहा है, टंकोत्कीर्ण हो रहा है...
जब प्रथम से ही ऐसा है तो मैं ज्ञेयो से या इन्द्रियों से जानता हूँ, कितना बड़ा भ्रम है।
यहाँ से शुरुआत होगी, तो पूर्णता भी उसी मे होगी ही, यह अध्यात्म की चरमसिमा है।
"जय हो सर्वज्ञदेव के साक्षात्कार"