पिंकी जैन's Album: Wall Photos

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*संयोग तो वियोग रूप ही है*

वैराग्य प्रसंग सूचक पत्र मिला । भाई जी ! संयोग तो, वियोग रूप ही है । अतः वियोग कोई आश्चर्यकारक नहीं है । प्रसंग तो संयोग एवं पर्यायों की अनित्यता को प्रगट करते हैं । अतः हमें भी *आत्महित में, अनुकूलताओं की प्रतीक्षा करते हुए, विलम्ब करना उचित नहीं है ।*

मोह को जीतने का एकमात्र उपाय अक्षय, अविनाशी निज चित्स्वभाव की आराधना ही है ।

आत्म हित का मात्र विचार ही करते रहने से, हित नहीं होगा । अतः तत्त्वाभ्यास के बल से, सम्यक्त्व प्रगट कर, संयम धारण करने का तीव्र अन्तर्मुखी पुरुषार्थ करना ही श्रेयस्कर है ।

शोक करना तो आर्तध्यान रूप होने से वर्तमान दुःख रूप है और आगामी पाप बंध का कारण है । अतः अब तो यह संकल्प करना है कि निज ज्ञायक भाव ही परम इष्ट है एवं ज्ञायक भाव की आराधना ही इष्ट है ।

असद्भुत व्यवहार से भी आराधना के निमित्तभूत पंच-परमेष्ठी, जिनवाणी आदि इष्ट है । इनके अतिरिक्त कहीं इष्ट की कल्पना करके समर्पण नहीं करें ।

विशेष क्या लिखूँ ? स्वाध्याय मात्र रूढ़ि रूप नहीं करें, अपितु अंतरंग लगन पूर्वक, अधिक से अधिक करें । विषय-कषाय व परिग्रह से जितना हो सके, उतनी विरक्ति बढ़ाते हुए, पूर्ण निवृत्ति की भावना भाएँ । संयोग छूटने से पहले ही संयोगी दृष्टि टूट जाये और आत्महित में संलग्न रहते हुए, परम सुख को प्राप्त होवें ।

*पुस्तक का नाम - स्वानुभव पत्रावलि-2, पृष्ठ सं 118*
*लेखक - ब्र. रवीन्द्रजी "आत्मन"*