गोरा कुम्हार हुआ।
उसके पास हजारों लोग
दूर—दूर से आते थे
पूछने जीवन का सत्य।
और कुम्हार था,
तो कुम्हार की भाषा में
बोलता था।
किसी ने पूछा कि
'गुरु करता क्या है?
आखिर गुरु का कृत्य क्या है?'
तो गोरा कुम्हार
उस वक्त अपने
कुम्हार के चाक पर
घड़े बना रहा था।
उसने कहां,
'गौर से देख।
एक हाथ मैं घड़े को
भीतर से लगाये हुए हूं
और दूसरे हाथ से बाहर से
चोटें मार रहा हूं।
बस,
इतना ही काम गुरु का है।
एक हाथ से
सम्हालता है शिष्य को,
दूसरे हाथ से
मारता है शिष्य को।
ऐसा भी नहीं मारता कि
घडा ही फूट जाये,
कि सम्हाल ही न दे!
और ऐसा भी नहीं सम्हालता
कि घडा बन ही न पाये!
इन दोनों के बीच
शिष्य निर्मित होता है।
गुरु मारता है;
जी भरकर मारता है
और सम्हालता भी है।
मार ही नहीं डालता।
यूं मिटाता भी है
बनाता भी है।
यूं मारता भी है,
नया जीवन भी देता है।’
कुम्हार है,
कुम्हार की भाषा बोला है,
लेकिन बात कह दी।
और बात इस तरह से कही
कि शायद किसी ने
कभी नहीं कही थी।
मैंने दुनिया के
करीब—करीब सारे शास्त्र देखे हैं,
लेकिन गुरु के कृत्य को
जैसा गोरा कुम्हार ने
समझा दिया,
यूं सरलता से,
यूं बात की बात में
ऐसा किसी ने नहीं समझाया।
कि गुरु भीतर से तो
सम्हालता है...
भीतर से सम्हालता है
और बाहर से मारता है।
बाहर से काटता है,
छांटता है।
बाहर बड़ा कठोर
भीतर बड़ा कोमल!
भीतर यूं कि
क्या गुलाब की पंखुड़ी में
कोमलता होगी!
और बाहर यूं कठोर
कि क्या तलवारों में धार होगी!
तो जो मिटने
और बनने को राजी हो
एक साथ,
वही शिष्य है।