पिंकी जैन's Album: Wall Photos

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शास्त्रों में कथा आती है तुलाधर वैश्य की। एक ज्ञानी बहुत दिन तक ध्यान करता रहा पहाड़ों में। इतना ध्यान किया,इतना तप किया, ऐसा खड़ा रहा पत्थर की मूर्ति बनकर कि उसके बालों में घोंसले बना लिये पक्षियों ने। जटाजूट थे,घोंसले रख लिये, बच्चे दे दिये। वह ज्ञानी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसकी दूर—दूर तक ख्याति पहुंच गई। लोगों से वह कहने लगा, मैं वही हूं जिसके सिर में जटाजूट में घोंसले बना लिये,ऐसा मेरा ध्यान है।

लेकिन कोई परिव्राजक उसके पास से गुजरता था। उसने कहा, लेकिन वे पक्षी कहां हैं? उसने कहा, वे तो मैं जरा हिला कि उड़ गये।

'तो उन पक्षियों को बुलाओ।’

उसने कहा कि वे मेरे बुलाये नहीं आते। मैं तो उनके पास भी जाता हूं—वे यहीं रहते हैं, आसपास बैठे रहते हैं—मैं उनके पास जाता हूं तो एकदम भाग जाते हैं।

तो उन्होंने कहा, यह कोई बात न हुई। तुम तुलाधर वैश्य के पास जाओ। उसने कहा, यह कौन है? एक तो वैश्य शब्द से ही उसको बड़ी हैरानी हुई। वह ब्राह्मण था। विप्र! और बड़ा ज्ञानी था और तपस्वी था और कोई बनिया, वैश्य! तुलाधर! और कहां का नाम? क्या करता है यह? उन्होंने कहा वह कुछ नहीं करता, वह तराजू ही तौलता रहता है। इसीलिए तुलाधर नाम है उसका। दूकान पर बैठा तराजू तौलता रहता है। मगर अगर तुम्हें जानना है असली शांति तो उसके पास जाओ। और जो पक्षी तुम्हारे बुलाये नहीं आते, तुलाधर के इशारे पर चले आयेंगे। हजारों मील से।

'कहां रहता है तुलाधर?'

तो उसने कहा, 'वह काशी में रहता है।’

तो इस बेचारे ने यात्रा की, काशी पहुंचा। बड़ा हैरान हुआ। भीडुम— भक्क! काशी की गलियां! निकलना मुश्किल,चलना मुश्किल, जगह—जगह नाराजगी होने लगी। कोई धक्का मार दे, किसी का पैर पैर पर पड़ जाये। संकरी गलियां और भीड़— भाड़। और यह कहने लगा यह कोई जगह है,जहां कोई ज्ञान को उपलब्ध हो? यहां तो अगर ज्ञानी भी आये तो अज्ञानी हो जाये। इधर मुझे तक क्रोध आ रहा है। यह तुलाधर वैश्य यहां कहां ज्ञान को उपलब्ध हो गया? लेकिन ठीक, आ गया तो उसका दर्शन कर लूं।

गया तो वहां तो बड़े ग्राहक खड़े थे। और वह बड़ा हैरान हुआ। तुलाधर के कंधे पर वही पक्षी बैठा था, जो उसके सिर से उड़ गया था क्योंकि वह हिल गया था। उसने कहा, यह बड़ा चमत्कार है। बात कुछ होनी चाहिए इस आदमी में। उसने तुलाधर से पूछा कि तेरा राज क्या?

उसने कहा, मेरा कुछ ज्यादा राज नहीं। मैं कोई पंडित नहीं, कोई ज्ञानी नहीं। यहां तराजू को तौलते —तौलते भीतर भी तौलना सीख गया। इधर तराजू तुलता, उधर भीतर मैं तुलता हूं। इधर जब दोनों पलड़े बराबर हो जाते हैं, काटा ठीक बीच में आ जाता है तब मैं भी अपने कांटे को बीच में ले आता हूं। दोनों पलड़े बराबर कर लेता हूं। सुख—दुख बराबर। सफलता—असफलता बराबर। संसार— मोक्ष बराबर। शांति— अशांति बराबर। मिलना न मिलना बराबर। मिलन—बिछोह बराबर। सब द्वंद्व को तौल लेता हूं। बस तराजू का काटा बीच में है, जैसा बना रहता है, इसी को देखते—देखते. मैं बनिया हूं। और तो मैं कुछ ज्यादा जानता नहीं। ध्यान इत्यादि मैंने किया नहीं। आप महातपस्वी हैं। आप कैसे आये?आपके चरण लग।

तब उस ज्ञानी की आंख खुली। जंगल में खड़े होकर शांत हो जाने में कोई बड़ी शांति नहीं है। जंगल में जो शांत न हो जाये वही थोड़ा विशिष्ट पुरुष है। जंगल में तो कोई भी शांत हो जायेगा। हिमालय पर गये कभी? हिमालय की शीतलता भीतर प्रवेश करने लगती है, छूने लगती है। सब शांत होने लगता है। लेकिन उस शांति में तुम्हारा क्या है? उतरोगे पहाड़ से, जैसे—जैसे तुम उतरोगे वैसे —वैसे शांति उतर जायेगी। वह पहाड़ के साथ ही पीछे छूट जायेगी। शांति तो वहां, जहां शांति का कोई उपाय नहीं है।

भक्त कहता है, यह संसार तेरा है। तेरे हाथ की इसमें छाप है। तेरे हाथ की छाप से मेरा कोई विरोध नहीं। बस तेरे हाथ की छाप में ही तेरे को खोंजूंगा। और जहां तेरे हाथ की छाप है, कहीं तू भी छिपा होगा। कहीं तुझे पकड़ ही लूंगा,खोज ही लूंगा। और फिर जल्दी भी नहीं है। क्योंकि खोज भी इतनी रसपूर्ण है।

भक्त की भाषा अलग है। भवसागर जैसा गंदा शब्द वह उपयोग करता ही नहीं। भवसागर तो विरोधी का शब्द है। उसमें तो छिपा ही है निंदा का भाव। कैसे छुटकारा हो?भवसागर, जाल—जंजाल कैसे मिटे? प्रपंच कैसे छूटे?

'भवसागर से पार उतरकर परम आत्मा में लीन होने के लिए.।’

अब यह परम आत्मा में लीन होना भी भक्त की भाषा नहीं है। भक्त परमात्मा में लीन होना चाहता है, आत्मा में नहीं। आत्मा तो अपनी है—परमात्मा, वह जो विराट है। भक्त तो अपनी बूंद को इस सिंधु में डुबाना चाहता है। भक्त की ऐसी क्षुद्र तलाश नहीं है। वह यह नहीं कहता है कि मैं कौन हूं। वह इतना ही कहता है कि मुझे डुबा ले। बस तुझमें हो जाऊं,काफी है।

तो तुमने पूछ तो लिया है प्रश्न लेकिन तुम्हारे मन में ज्ञानियों ने बहुत कचरा भर दिया है। मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम भक्त हो जाओ। तुमने पूछा है इसलिए उत्तर दे रहा हूं। अगर भक्त होना है तो यह ज्ञानियों के कचरे को अलग कर दो। अगर यह ज्ञानियों के कचरे में तुम्हें मूल्य मालूम पड़ता है तो भक्ति का भाव छोड़ दो।

मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि ज्ञान के मार्ग से पहुंचना नहीं होता है। ज्ञान के मार्ग से भी पहुंचना होता है। लेकिन तब भक्ति की बात ही भूल जाओ। दो नावों पर सवार मत होओ,अन्यथा डूबोगे, कहीं भी न पहुंचोगे। एक नाव काफी है।

और जब मैं कहता हूं कि ज्ञानी के मार्ग से भी पहुंचना होता है तो खयाल रखना कि मेरे ज्ञानी में और तुम्हारे ज्ञानी में बड़ा फर्क है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो, जो शास्त्र का ज्ञाता है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो, जो पंडित है, सिद्धांत में कुशल है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो जिसके पास बहुत जानकारी है। मैं ज्ञानी उसे कहता हूं जिसने सब जानकारी फेंकी, सब शास्त्र हटाये। जिसने धीरे— धीरे जानकारी से अपनी दृष्टि हटाई और जानने के सूत्र पर लगाई। जो जागने लगा वही ज्ञानी है।

ज्ञान में ज्ञान नहीं है, ध्यान में ज्ञान है।

तो दो मार्ग हैं. ध्यान और प्रेम। प्रेम है भक्ति का मार्ग,ध्यान है शान का मार्ग। यह मैं तुम्हें स्पष्ट कर दूं। क्योंकि ज्ञानी से तुम कहीं यह मत समझ लेना कि कोई पंडित वेद को जाननेवाला है और ज्ञानी हो जाता है। जानकारी से कोई ज्ञान नहीं होता। जानकारी में अज्ञान दब जाता है, मिटता नहीं। और दबा हुआ अज्ञान बना रहता है। सदा बना रहेगा। छिपा रहेगा भीतर। उससे छुटकारा न होगा।

अष्‍टावक्र: महागीता (भाग--6) प्रवचन--5