(#एक_अनुत्तरित_सवाल)
काश! कि एक गृहणी की भी सरकार ने तनख्वाह तय की होती..
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तुम दिन भर करती क्या हो ...?
हाँ , मैं सचमुच दिन भर करती भी क्या हूँ?
मैं एक सामान्य सी गृहणी
सुबह से शाम तक
जो बिना किसी शुल्क के बनाये रखती है संतुलन
सारे परिवार का
मैं भला करती भी क्या हूँ ..?
मैं करती क्या हूँ ...
सुबह उठती हूँ और चकरघिन्नी से
सारे घर को संभालती हूँ ,यहाँ से वहां तक ,
इस्तरी किये कपडे जिन्हें निकाल कर
तुम आसानी से पहन जाते हो
अपने दफ्तर जाते हुए ..
और महसूसते हो खुद को लार्ड साहब
उस वक्त मैं समेट रही होती हूँ,
एक लम्बी साँस भर कर,
तुम्हारे और बच्चों के उतर कर फेंके
इधर उधर कपड़े ...
मैं करती ही क्या हूँ ...?
हम बाजार जाते हैं .
तुम बटुए का बोझ उठाये चलते हो
और मैं एक खाली झोला मुट्ठी में बांधे
तुम्हारे पीछे पीछे हो लेती हूँ
तुम चुकाते हो कीमत
उन सभी जरुरी सामान की
जो जीने के लिए हर महीने जरुरी हैं ,
और मैं उस भरे हुए झोले का बोझ उठाये
चल पड़ती हूँ संग तुम्हारे
मैं करती क्या हूँ ...?
सर्दियों में तुम्हारी पसंद के साग
और मक्के - बाजरे की रोटी सुविधाओं से पूर्ण रसोई में बनाती हूँ ...
और तुम्हे खाते हुए देख कर सुख पाती हूँ ,
मैं करती क्या हूँ ...
उँगलियाँ दुखती हैं न तुम्हारी
जब तोड़ते हो गुड की डली कभी अपने हाथों से
जब ठण्ड में गुड़ की टूटी डेलियां
गर्म दूध के संग चबाते हो |
मैं करती ही क्या हूँ ...
स्कूल से आये बच्चों की दिन भर की
धमाचौकड़ी से लेकर उनके होमवर्क कराना
पल पल उनकी और तुम्हारी जरूरतों का ध्यान रखना ...
मैं करती ही क्या हूँ ...
कि शाम को जब कभी तुम
समय पर घर नहीं पहुंचे
तुम्हारे आने पर रो-रो कर झगड़ती हूँ ..
कहाँ रहे इतनी देर, क्यों देर हुई ..
एक फोन कर देते ...
पर इस झगडे के पीछे मेरी चिंता को
तुम कभी नहीं समझ सके
मैं करती ही क्या हूँ ...
तुमने बड़ी अकड़ और शान से
एक ही पल में अपने दोस्तों
और रिस्तेदारों से कह दिया ये मेरा घर हे मेरे बच्चे हे
उस घर को सजाने में,
बच्चों को काबिल बनाने में
मुझे बरसों लगे
तुम कभी नहीं समझ सके
मैं दिन भर करती क्या हूँ ??
ऐसे तमाम प्रश्न हैं जिनका उत्तर
तुम्हे तब मिल गया होगा
जब पिछले दो महीने से एक बड़े ऑपरेशन से गुजरने के बाद
मैं बिस्तर पर हूँ .....
और तुमने हर उस काम के लिए बाई लगायी हुई है
जो जीने के लिए जरुरी है ...
महीने के अंत में
खाना बनने वाली को
घर की साफ करने वाली को .
कपडे धोने वाली को ... प्रेस करने वाले को
उनके पेमेंट दिए होंगे ...
उसके बावजूद भी .
जहाँ जहाँ तक नजर जाती है मेरी
मैं देख रही हूँ ..
मेरा घर बिखर गया है ..
कीमती साज सज्जा पर धूल उतर आई है |
टेबिल क्लॉथ कब से खिसक कर आड़ा - तिरछा सा
बस पड़ा है टेबिल पर ...
सोफे पर रखे कुशन .. जो अब पड़े हुए से दिखते हैं
फ्रिज भर गया है बचे हुए खाने पीने से
तुम्हारी ख़ामोशी बढ़ गयी है पहले से भी ज्यादा
(आखिर मेरी बक बक जो बंद है इन दिनों )
छोटी बेटी के चेहरे पर एक प्रश्नवाचक चिन्ह चस्पां है
मम्मा आप कब ठीक होगीं |
क्या उम्मीद करूँ ??
कि अब तुम को ये उत्तर मिल गया होगा ----
कि आखिर
मैं दिन भर करती क्या हूँ ...???
काश कि एक गृहणी की भी सरकार ने तनख्वाह तय की होती ..