प्रकृति के संतुलनकारी उपकरणों में से एक सहज उपलब्ध उपकरण युद्ध भी है, सहज उद्घाटित और प्रकटीकरण में सरलतम! निश्चित ही हिंसा और प्रतिहिंसा के बीज हमारे डी एन ए की पुरा गह्वरों में कहीं भीतर भी विद्यमान हैं।
संघर्ष प्रकृति के विस्तार का प्रमुख तत्व है, वह जैव विकास - योग्यतम की अतिजीविता वाले डार्विन हों, चाणक्य, व्यास या कि वाल्मीकि या फिर ट्राट्स्की! न्याय और शान्ति की पुनर्स्थापना के लिए युद्ध के विकल्प की बात हर जगह है।
प्रकृति के पंजे और चोंच रक्त तप्त हैं वह संघर्षो्ं से चेतना को सशक्त करती है तो विध्वंस से सृजन। एक पूरे मेटाबोलिज्म में कैटाबोलिज्म और एनाबोलिज्म का साम्य-संतुलन सधता रहता है।
युद्ध टालने के लिए सशक्त बुद्धिलब्धि और अच्छी नीयत वाले सुयोग्य दोनों पक्षों में आवश्यक हैं। नेकनीयती के अभाव में तो रावण जैसे महापंडित का भी वध आवश्यक है। आप अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग अहिंसा का इस्तेमाल कर सकते हैं, अल कायदा और जैश के विरूद्ध तो यह आत्मघात जैसा होगा।
भारतवंशियों में सदैव युद्ध को टालने की मंशा और क्षमता रखने वाले सुपुरूष प्रखर रहे फिर भी युद्ध एक सिद्धहस्त कुशल शिकारी की भांति अपने लक्ष्य को भेद ही देता है। आज हम पर आरोप है कि हम भारतवंशी युद्धोन्मादी हैं। मुझ पर व्यक्तिगत आक्षेप भी मेरी एक कविता को लेकर। कविराजों और कविरानियों ने फैसला दिया कि हम कवि नहीं रहे हालांकि कवि होने का हमारा कोई दावा या मंशा भी नहीं।
स्पष्ट करते चलें कि हम युद्धोन्मादी नहीं रहे कभी! हम रावण से , बैक्ट्रिया के यवनों से, अलक्षेन्द्र से, मिनाण्डर से, डिमिट्रियस प्रथम से, शकों,हूणों,कुषाणों, मोहम्मद बिन कासिम, गजनी-गोरियों,बाबर,अकबर औरंगजेबों, डच, पुर्तगाली, अंग्रेजों, चीनी पाकिस्तानियों से कभी युद्ध नहीं चाहते थे। पर हमें लड़ना पड़ा आज भी लड़ ही रहे हैं।
और कैसा लड़े सब जानते हैं। कुरूवंश के पहले के लगभग सभी राजाओं, महाराज पृथु, महाराज युधिष्ठिर, चंद्रगुप्त मौर्य, महाराज मिहिरकुल ने विराट भूभाग पर सनातन यज्ञ किए।
हम लड़ना नहीं चाहते पर जब लड़ते हैं तो मृत्यु का तिरस्कार करते हैं। हमारे वीरगति सद्गति से तो देवता तक ईर्ष्या करते आए हैं। हमारा देवता चिताभस्म का आभूषण धारण करता है तो हमारी ईश्वरी की क्रीड़ाभूमि ही श्मशान है। हम महाभारत के शान्ति पर्व में युद्ध का दर्शन देने की क्षमता वाले लोग हैं ।
धर्म्माद्धि युद्धाच्छ्रेयो$न्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ।
(भीष्म पर्व २६/३१ )
इस्लामिक अतिवादी आततायी हैं। छः प्रकार के आततायियों के विनाश के लिए शस्त्र-धारण की आज्ञा शास्त्र देते हैं। प्राण-भय से बुद्ध का जप करने वाले नैराश्यवादी प्रवंचक तो जीते ही मृतक समान हैं निकम्मे गृहस्थ की तरह।
राष्ट्र धर्म और राष्ट्र-रक्षा यज्ञ है। वर्तमान समय में क्षात्र धर्म का धारण ही राष्ट्र के लिए सम्यक धम्म है। रक्षण आक्रमण में लगे हमारे क्षत्रिय योद्धा धन्य हैं।धन्य हैं वह जो इस यज्ञ में प्राणों की आहुतियां दे रहे हैं देने को तत्पर हैं। हमारे मोक्ष जैसा परमपद भी उन वीरों की सद्गतियों के सम्मुख तुच्छ है।