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मातृ दिवस :--------

( ओशो ने अमेरिका से आकर पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर में संन्यास लेने वाली महिलाओं को ' मा ' नाम देने के वारे में सवाल किया -उत्तर चौंकाने वाला है ! )

प्रश्न : जवान लड़कियां संन्यास लेती हैं तो आप उन्हें मां क्यों कहते है ?

कुछ बातें !
तुम परमात्मा को पिता क्यों कहते हो ?
उसकी कोई पत्नी नहीं है,
उसके कोई बच्चे नहीं हैं ;
फिर वह पिता कैसे बन गया ?
ऐसे लोग भी हैं , जो परमात्मा को मा कहते हैं !
उसके कोई बच्चे नहीं, फिर उसे मां क्यों कहते हो ?

ईसाइ पादरी को पिता कहते हो,
जबकि वह अविवाहित है ,ब्रह्मचारी है !
उसे पिता क्यों कहते हो ?

तुमने इन बातों के बारे में सोचा नहीं होगा क्योंकि यह सदियों से चली आ रही हैं ! और हमने उन्हें स्वीकार कर लिया है !

हकीकत यह है कि पिता एक आदर सूचक शब्द है--श्रेष्ठतम आदर जो तुम किसी को दे सकते हो !

मेरी दृष्टि से मा और भी आदरणीय है !
क्योंकि बच्चे को पैदा करने में पिता का योगदान बिल्कुल निम्नतम होता है !

पूरा निर्माण जो है ,वह मा का होता है !

मा का सार्वधिक सम्मान होना चाहिए !
वह जीवन को निर्मित करती है !
स्त्री की उच्चतम गुणवत्ता है ,जीवन निर्मित करने की क्षमता !

इसलिए मैंने अपनी संन्यासनियों को मा कहा !
उनको इस बात का अहसास दिलाने के लिए कि मातृत्व बड़े से बड़े सम्मान से भी बढ़ा है !
उन्हें पुरूष से कनिष्ठ होने की जरूरत नहीं !
वस्तुत: इस मामले में वे उनसे श्रेष्ठ हैं !

वेदों में ऐसे उदाहरण हैं ,जहाँ नवविवाहिता दंपति किसी महान ऋषि के पास आशीर्वाद लेने आते हैं ! और जो आशीर्वाद उन्हें मिलता है , वह सचमुच अनूठा है ! सारी दुनिया में किसी और धर्म में ऐसा आशीर्वाद नहीं है ! वह ऋषि पति को आशीर्वाद देता है कि तुम्हारी पत्नी दस बच्चों की माँ बनेगी और तुम उसके ग्याहरवें पुत्र बनो --पति से कह रहा है कि मां आखिर माँ है ! वह तुम्हे दस बच्चे देगी ,लेकिन सब कुछ ठीक - ठाक चलता रहा तो तुम उसके ग्यारहवें बच्चे होगे !

अब इस तरह का आशीर्वाद मेरे पक्ष में जाता है, तुम्हारे नहीं ! और यह आशीर्वाद इस बात का भी समर्थन करता है कि संभोग कोई कुरूप ,घृणित कृत्य नहीं ! बह जीवन के बहने की प्रक्रिया है , -- ठीक वैसे ही जैसे नदी बहती है.! शरीर पुराने हो जाते हैं ,जीवन नये शरीरों में प्रवेश करता है , पुराने शरीर छोड़ दिए जाते हैं ! लेकिन जीवन सदा - सदा चलता रहता है -- शास्वत से शास्वत की ओर.! और स्त्री उसका द्वार है !

पुरूष के बिना काम चल सकता है ! शायद सिर्फ एक इंजेक्शन काफी होगा ! लेकिन स्त्रियों के बिना रहना बहुत मुश्किल है !

स्त्रियों के बिना हम परखनलियों में बच्चे पैदा कर सकते हैं ,लेकिन वे मानवीय नहीं होंगे ,यांत्रिक होंगे ! क्योंकि स्त्री बच्चे को हड्डी ,माँस और खून ही नहीं देती , वह उसे बुद्धी भी देती है ,भाव भी देती है ,प्रेम भी देती है ! बच्चे के पास जो भी होता है वह माँ के द्वारा दिया हुआ होता है ! परखनली वह सब नहीं दे सकती ! बह बच्चे को शाक - सब्जी की तरह जिन्दा तो रख सकती है , लेकिन भाव और बुद्धि नहीं दे सकती !

संन्यास की शुरूआत करने से पहले मुझे इसे सोचना पड़ा ! क्योंकि पुराने शास्त्रों में पुरूषों को संन्यास दिया जाता था , पर स्त्रियों को सदैव वंचित रखा गया ! तो पुरूषों के लिए तो नाम है -" स्वामी " ,पर स्त्रियों के लिए कोई नाम नहीं है !

महावीर ने स्त्रियों को स्वीकार नहीं किया ,
बुद्ध ने स्वीकार नहीं किया ,
हिंदुओं के द्वार भी स्त्री के लिए बंद थे.!

मैं पहला हूँ जिसने स्त्रियों को संन्यास में दीक्षित किया !
मुझे नाम खोजना जरुरी था !

मेरी दृष्टी में " स्वामी " बहुत अच्छा नाम है !
उसका इतना ही अर्थ होता है - स्वंय के मालिक बन जाना !

लेकिन यह खतरनाक भी है , क्योंकि यह तुम्हे एक तरह की ताकत भी देता है ! यह तुम्हें विनम्र नहीं बनाता ,उल्टे तुम्हें अंहकारी बनाता है --तुम स्वामी हो !
क्रमश: १

ओशो : ' फिर अमृत की बूंद पड़ी '

ओशो