एक आग जो दहक रही है
मन के किसी कोने में
जल रहा है
मेरे अंतस का पोर पोर
आओ तुम इसे बुझा दो ना
नजदीक इतना में दरिया के
मन फिर भी सूखा सूखा
कंठ प्यासे ओठ सूखे
नयनो में नदिया की धारा
आओ तुम ये अगन बुझा दो ना
पलके बोझिल चहुँ ओर अंधेरा
नींद फिर भी कोसो दूर
स्वस्प्न लगते कामिनी से
डर लगता सुन कोई चीत्कार
अब कोंन कहे ये मन की आवाज
आओ तुम मुझे सुला दो ना
बचपन मे सुनी थी माँ की लौरिया
पालने में होल से हाथों की
उनकी रस भरी थपकियाँ
जब कौंधता था मन
आँचल की उनके नज़दीकियां
दूर कही वे अब नज़रो से
आओ तुम मुझे बुला लो ना
संजय ---------