टीवी बहस के झूठ और दुष्परिणाम
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हम लोग हर रोज खबरिया चैनलों पर आयोजित बहसो को देखते रहते है,पता नही क्यों?क्या मिलता है हमको इनसे?
बहस-विमर्श से किसी को खास शिकायत नही,लेकिन हर दल,तथाकथित सिविल सोसायटी और बौद्धिक स्तर के प्रतिनिधियों के बीच टीवी के नाटकीय माहौल में कराए जा रहे वादविवाद जिस तरह लगभग हर बार बकवासों में तब्दील होते जा रहे है वह मसलों की गंभीर जटिलता नकार कर हर विषय को महज सफेद या स्याह रंगों तक सीमित कर रहा है। हर चैनलों में न्यौते गए अति परिचित "टीवी फे्ंडली" किंतु कानून की सीमित समझ रखने वाले बडबोले प्रतिनिधियों की मार्फत विषय के गहरे जानकारों पर स्कूली सवालों की बौछार कर, उनका जवाब पूरी तरह सुने बगैर ,अपने दल के सही होने की रणभेरी बजाई जाती रही। क्या हम मान ले कि ३० मिनट के इस तरह के दंगल के बाद सिर्फ अपने हित-स्वार्थ के चश्मे से देश को देखने वाले दल जटिल सामाजिक समस्या का हल चुटकी बजाते खोज सकते है? टीवी पर चर्चाओ में हर बहसकार अपने ही दल या गुट की सोच को बेहद आक्रामकता से देश के सर्वमान्य नियम-कायदों के रूप में स्वीकृत करवाने पर तुला दिखता है। "माफ करें" या "पहले आप"सरीखे फिकरो के बजाए "आप जरा मुझे भी तो बोलने दीजिए" या " अब तक आप ही लगतार बोले जा रहे है"अब मेरी बारी है और मुझे अपनी बात कहने का पूरा हक है, जैसे वाक्य इन दिनों भजन की टेक की तरह तमाम टीवी बहसों का हिस्सा बन रहे हैं।
जहाँ तक आग में घी डालते राजनीतिक दलों की बात है, उनके दलीय प्रवक्ता तो लगता है बहस में सिर्फ खुद को सुनाने आते हैं,दूसरों को सुनने और उसका मत जानने में कोई रुचि नहीं। अंततः एंकर के टोकाटोकी के बीच बहस का अंत हो जाता है।
Inbook का मानना तो यही है कि इन बहसों से देश में नकारात्मक माहौल उत्पन्न होता है।इन बहसों से ही जनता को लगता है कि देश मे माहौल बहुत खराब है जबकि सच्चाई कुछ और ही होती है।
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