यह किस्सा नहीं हकीकत है;
सरहद की छोटी बस्ती का।
भारत की वीर बहूटी का
बेटी की वतन परस्ती का।
सरहद पर शोर धमाकों का
सुनकर बस्ती में गीत बजे।
गीतों की थाप कहा करती
अपने माथे पर जीत सजे।
ढोलक की थाप जवानों के
कदमों की ताल मिला देना।
जागे हैं संग तुम्हारे हम
तुम दुश्मन की चाल हिला देना।
भूखे रह डट पहरेदार लड़ें
हम बस्ती में खा अंगड़ाई लें?
सरहद पर अंगारे दहके हों
हम आलस भरी जम्हाई लें?
वो बाँध चुन्नियाँ शीश चलीं
अधरों रणकौशल के गीत लिए।
अरदास जीत की करती थीं
धरती माता की प्रीत लिए।
देहरी की बंदिश टूट गई
भूलीं थीं चाहर दिवारी को।
कुछ नया हौसला देना था
भारत की पहरेदारी को। ...मदन मोहन समर जी
कुछ दिन पहले "सियालकोट की सरहद" पढ़ने का समय मिला। उसकी हर पंक्ति कर्तव्य बोध की दस्तक देती है। सैनिक के स्वयं के जीवन के साथ-साथ आज हर भारतीय सदियों से विजय दुंदुभि, शहीदों को बिदा देते बिगुल के आर्त स्वर दोनों के बीच अपने आपस के बिखराव पर द्रवित होता है परन्तु सीखता कुछ नहीं। युद्ध विजय है और विनाश भी। उत्सव है और उदासी भी। मोह है और निर्लिप्तता भी। परन्तु सर्वोपरि होती है, अभय की स्थिति जिसमें हर सैनिक अपना सर्वस्व अपनी मातृभूमि को अर्पित कर देता है। आज़ादी के बाद से हर रोज पर्वतों को चुनौती देते पैरों को देह से कटकर अलग होते और पत्थरों को तोड़ देने वाले हाथों को निर्जीव होते देखने के बीच हर भारतीय अपने वीर सैनिकों के कभी न झुकने और कभी न टूटने वाला साहस देखता है।
सैनिक इस विश्वास के साथ अवश्यम्भावी मृत्यु का निडर होकर वरण करता है कि उसकी आहुति में भी राष्ट्र सृजन के बीज होते हैं। युद्ध में वह अकेला नहीं होता; सम्पूर्ण देश उसके साथ होता है। उसके बढ़ते क़दमों के साथ राष्ट्र के सहस्त्रों कदम जुड़े होते हैं। इसलिए वह एक अडिग निष्ठा के साथ कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहता है। सैनिक के जीवन में जहाँ अपने को अपने से और अपनों से अलग कर लेना एक अनिवार्यता है; जहाँ जीवन और मृत्यु अपना अर्थ अवश्य खो देते हैं; जहाँ व्यक्तिगत बलिदान तो होता है पर व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं होता। राष्ट्र के प्रति असीम समर्पण, अटूट निष्ठा, निजी स्वार्थ से ऊपर रिश्तों के मोह तोड़ अपना सब कुछ और स्वयं का समर्पण, टूटती चूड़ियां, राखी के बिखरते धागे और सब कुछ खो देने की बेला में मां, पिता, भाई, बहन, मित्र,और परिजनों के गर्व से उन्नत होते शीश। बलिदान की इस परम्परा के समक्ष एक कृतज्ञ राष्ट्र अश्रुत नयन से नत मस्तक हो के श्रद्धा पुष्प समर्पित कर सकता है। सरहद की वेदना और संवेदना को अनुभूत करने के लिए हमें सरहद पर खड़े होने की आवश्यकता नहीं अपितु परमात्मा प्रदत्त पुरुषार्थ में प्रच्छन्न, जीवन के अर्थ को सिद्ध के साथ-साथ शुद्ध करने की उत्कट अभिलाषा की आज आवश्यकता है। राष्ट्र के कण-कण हेतु समर्पण आज हर भारतीय का प्रण होना चाहिए।