मेरा गाँव, गाँव का नाम सुनते ही न जाने कितनी ही स्मृतिया एक के बाद एक मानस पटल पर क्रिड्रा करने लगती है। पुराना मकान, सीढीनुमा हरे भरे खेत, चीड, देवदार, साल, सागौन के पेडो से भरे जंगल और प्यारा सा बचपन। बहुत पहले पिताजी हमे शहर ले आये थे। तब मे शायद 3 या 4 साल का रहा हूँगा। पिताजी को सरकारी आवास मिला हुआ था। उसी मे बचपन के दूसरे चरण का प्रारम्भ हुआ। गाँव का बचपन धूमिल होता गया और शहरी बचपन नये पायदान पर।
मै 15 वषौ के बाद गाँव गया था, वो भी इजा के पिताजी को बार बार कहने पर कि देख तो आइये हमारा मकान कैसा है। खेतीहर जमीन हमने जिन लोगौ को दी है,वो ढंग से खेती करते है भी कि नही। जमीन बंजर तो नही छोडी हुई है। मकान कही से टूटा तो नही है। तब मै इजा के गाँव से जुडे इस प्रेम को नही समझ पाता था।
गाँव आकर पुरानी यादे ताजा हो गयी,गाँव की चढाई मे बच्चो का समूह,कंधे पर बस्ता,हाथ मे कमेट की दवात,जेब मे लाइन खीचने का धागा लिये स्कूल जाते थे,आज भी जाते है। फर्क है तो ये कि पहले गाँव वाले लडकियो को स्कूल नही भेजते थे, अब भेजते है। मेरे समय मे स्कूल कि इमारत कच्ची थी, अब पक्की हो गयी है। पुराने समय मे अगर किसी गाँव मे या किसी आदमी को कोई संदेश या न्यौत देना होता था तो उस आदमी को बता दिया जाता था जो उस गाँव के संर्पक मे हो या उस आदमी का परिचित हो। गाँव के लोग इसी तरह से संदेशो का आदान प्रदान करते थे। अब तो एक छोटा सा पोस्ट आफिस भी है। फोन इत्यादि की सुविधाये भी पहुचने लगी है। दवाई इत्यादि के लिये पहले 20 किलोमीटर दूर जाना पडता था,पर अब छोटे से सरकारी अस्पताल के खुल जाने से छोटी छोटी बीमारियो का ईलाज वही पर हो जाता है।
गाँव की खेती के तो क्या कहने। जंगल से खेतो की खाद के लिये पतेल, पिरोउ के जाल गोठ मे संचित किये जाते है और बाद मे गोबर के साथ डालो मे भरकर खेत मे डाल दिये थे। अब भी वही प्रथा चली आ रही है। गेंहूँ,जौ,धान,मडुआ,काकुनी,गहत,भट्र की खेती उसी तरह से होती है। खाद वही पुरानी और पानी के लिये देवराज इंन्द्र पर निर्भरता। बिना खाद पानी के जमीन से आशा भी क्या की जा सकती है। कमरतोड मेहनत और फल वही, मुटठी भर अनाज। पर मजाल है गाँव वाले मेहनत करना छोड दे।
पिताजी कहते थे कि पहले गाँव मे पहुचने के लिए लगभग 30 या 35 किलोमीटर पैदल चलना पडता था पर अब तो मोटर मार्ग बन गया है। कई टैक्सी, जीपे एव सरकारी बसे रोजाना आती जाती है। गाँव से अब मु्श्किल से आधे किलोमीटर की चढाई चढनी पडती है। मोटर मार्ग के कारण बहुत सी सुविधाये मिल गयी है।आजकल तो ये हालात है की ह्लद्रानी\अल्मोडे से खरीदे समान मे एव स्थानीय बाजार से खरीदे समान मे 2 या 3 प्रतिशत का अंतर होता है। गाँव के लोग रात्रि मे उजाले के मिट्रटी के तेल की ढिबरी का प्रयोग करते थे। अब तो गाँव मे बिजली पहुच गयी है।
लगभग 15 वर्षो मे छोटी मोटी सुविधाऔ के बावजूद मेरा गाँव वैसा ही है जैसा मैने छोडते समय देखा था। गाँव का मूल स्वरूव एव चरित्र बिल्कुल भी नही बदला है। तीज त्यौहारो और धार्मिक मान्यताऔ की उमंग वही पुरानी है। हुडुक, ढोल, मशीनबाज जैसे ठेठ वाद्ययन्तो की थाप पर रात भर झवाड और लोक गीत के बोल गुजते है। आज भी होली मे होलियारो की टोलिया हर घर के आगन मे जाकर होली गाती है, आशिष देती है। होलियारो के पीछे पीछे होता है बच्चो का समूह जो हर घर मे बटने वाले गुड की डलिया इकटृठा करते है। क्या मिठास होती है उस गुड मे। दिवाली पर सभी लोग एक दूसरे के घर जाकर बधाईया देते है। घूघूती, हरेला, मकर संक्राती पहले की भाँती मनाये जाते है।
कहते है जब कोई परिवर्तन होता है तो उसके साथ साथ उस से जुडी अन्य चीजो मे भी छोटे मोटे परिवर्तन होते है। कुछ अच्छे कुछ बुरे। इतने अच्छे परिवर्तनो के साथ कुछ बुरे परिवर्तन भी हुए है। पहले शराब को कोई जानता भी नही था, मगर अब शराब गाँव की जिन्दगी मे कडवाहट घोलती जा रही है। पाश्चातय संस्कृति की हवा से मेरा गाँव भी अछूता नही रहा है। समय एवं परिस्थितियो के साथ गाँव के संदर्भ एवं परिभाषाए अवश्य बदल जाती है पर गाँव कभी नही मरता, वह आज भी जिन्दा है मेरे अन्दर....स्टिल एलाइव। मैं भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि मेरा गाँव खूब फले फूले और तरक्की करे।