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जयनारायण गोस्वामी September 17, 2021 -
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Arts & Culture
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#मोक्ष
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[8/24, 9:34 PM] JAy Narayan Goswami: [8/22, 10:36 PM] JAy Narayan Goswami: आज श्रावण पूर्णिमा से नित्य प्रति #अष्टावक्रगीता के श्लोकों पर चिंतन मनन।
सभी मोक्षमार्गी जिज्ञासुओं को स्नेह भरा आमंत्रण
[8/22, 10:36 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता
अष्टावक्र कहते हैं की मोक्ष कोई वस्तु नहीं है जिसे प्राप्त किया जाए ना ही कोई स्थान है जहां पहुंचा जाए।
जब तक विषयों में रस मिल रहा है तब तक बंधन है। जब मन विषयों से विरक्त हो जाता है तब मुक्ति है ।संसार में रहना खाना पीना और करना बंधन नहीं है इसमें रस आना ही बंधन है, और इनसे विरक्त हो जाना ही मुक्ति है।
सन्यासी बनने से धूनी रमा ने से संसार को गालियां देने से शरीर को सताने से उपवास करने से भोगोंके प्रति विरक्ति नहीं आ सकती इन सब का मोक्ष से कोई संबंध नहीं है।
सृष्टि उस विराट चेतना शक्ति की अभिव्यक्ति है।
धर्म उस चेतना को उपलब्ध होने का विज्ञान है।
सन्यास और वैराग्य इसका आरंभ है तथा मुक्ति अंत।
यह जीव की अंतिम स्थिति है।
यह तत्व बोध वाचाल बुद्धिमान और महा उद्योगी पुरुष को गूंगा जड़ और आलसी बना देता है इसीलिए भोग की अभिलाषा रखने वालों के द्वारा तत्व बोध त्यक्त है।
ज्ञानी मृत्यु के समय भी हंसता है ,मूड़ जिंदा रहते हुए भी रोता है ।
ज्ञानी के पास कुछ नहीं होते हुए भी आनंदित रहता है। अज्ञानी के पास सब कुछ होते हुए भी दुखी रहता है ।ज्ञानी कर्म को भी खेल समझता है, अज्ञानी खेल को भी कर्म समझता है ।ज्ञानी संसार को भी नाटक समझता है ,किंतु अज्ञानी नाटक और स्वप्न को भी वास्तविक समझता है। ज्ञानी व अज्ञानी के कर्मों में समानता होते हुए भी दृष्टि में बड़ा अंतर है।
[8/23, 10:56 PM] JAy Narayan Goswami: *अष्टावक्र गीता*
आध्यात्मिकता में जो उपलब्धि भारतीय अध्यात्म की रही है उस ऊंचाई तक विश्व के अन्य धर्म पहुंच नहीं पाए।
विश्व के धर्म- प्रार्थना और पूजा तक ही सीमित रहें उसे से आगे बढ़े तो सेवा तक! लेकिन भारतीय अध्यात्म कर्म- भक्ति- योग- प्रार्थना- ध्यान और सर्वोच्च शिखर मोक्ष तक पहुंचा।जहां जन्म और मृत्यु के पुनरावृत्ति का नाश हो जाता है।
अध्यात्म जगत में तीन ही निष्ठा महत्वपूर्ण हैं ज्ञान कर्म और भक्ति। मनुष्य के दो प्रकार के ही स्वभाव होते हैं अंतर्मुखी और बहिर्मुखी। बहिर्मुखी साधकों के लिए कर्म और भक्ति का मार्ग अनुकूल पड़ता है और अंतर्मुखी के लिए ज्ञान । बहिर्मुखी को ज्ञान या भक्ति का मार्ग समझ में नहीं आ सकता उसके लिए तो कर्म और भक्ति ही अनुकूल है। विद्वान प्रज्ञा वन प्रखर बुद्धि और चेतना वाला ही ज्ञान के मार्ग को समझ सकता है और ग्रहण कर सकता है यही कारण रहा अष्टावक्र की पूरी विधि जनमानस में प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर सकी गीता की तुलना में। गीता भक्ति कर्म और ज्ञान समन्वय है किंतु अधिकाधिक जोर कर्म पर है जबकि अष्टावक्र की अष्टावक्र गीता विशुद्ध गणित के सूत्र की तरह केवल और केवल# बोध पर ही आधारित है। बोध -और बोध के शिवाय कुछ नहीं। अष्टावक्र किसी भी प्रकार के विधि का समर्थन नहीं करते ।किसी भी प्रकार के विधि का नहीं ना पूजा ना कर्म ना भक्ति प्रार्थना कुछ नहीं। सीधा अज्ञान पर चोट करते है।
अष्टावक्र गीता को समझने के लिए एक छोटी सी कहानी के माध्यम बनाया जा सकता है जिसमें एक शेर का बच्चा भेड़ों के झुंड मिल जाता है उसकी परवरिश होती है भेड़ों के झुंड में । भेड़ों के झुंड में रहते रहते वह शेर का बच्चा स्वयं को भेड़ ही समझने लगता है एक दिन एक शेर की दहाड़ को सुनकर जब सभी भेड़ भाग रहे होते हैं वह शेर का बच्चा भी भागने लगता है अचानक शेर की निगाह शेर के बच्चे पर पड़ती है और वह दौड़ कर के उस शेर को बच्चों को पकड़ लेता है और पकड़ कर के उसे तालाब में लेकर आता है जहां उसकी परछाई उसे दिखाता है और उसे कहता है *तूं भेड़ नहीं शेर है * बस इतना कहना ही शेर के बच्चे में शेरत्व जगा देता है ।
अष्टावक्र कहते हैं हजारों साल से बंद एक कमरे में जो अंधकार है उसे दूर करने के लिए मात्र एक चिंगारी या एक माचिस की तीली ही पर्याप्त है। और कुछ नहीं करना है सिर्फ एक तीली जलानी है, और हजारों साल का उस कमरे का अंधेरा नष्ट हो जाता है उसी तरह से जन्म जन्मांतर का अज्ञान जो जीव के दुख का कारण है केवल एक तत्व बोध के उपदेश से नष्ट हो सकता है।
अष्टावक्र ने सिर्फ कहा ही नहीं करके भी दिखाया महाराज जनक के ऊपर प्रयोग करके सिद्ध कर दिया।
अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर अद्वैत को भारत के आध्यात्मिक ने ही छुआ है अद्वैत इस संपूर्ण सृष्टि को ईश्वर की कृति नहीं अभिव्यक्ति मानता है
#सृष्टि में ईश्वर नहीं बल्कि ईश्वर बल्कि यह सृष्टि ही ईश्वर है।#
इसी तत्व बोध के आधार पर सर्व खलि्वदं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, ईशावास्यमिदं सर्वं, एवं विश्व बंधुत्व की उद्घोषणा की है।
[8/24, 9:27 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता-
आज तीसरा दिन-
अष्टावक्र गीता के श्लोकों को शुरू करें, उन पर मनन चिंतन करें उससे पहले थोड़ा सा शिष्य की योग्यता पर भी विचार कर लेना चाहिए।
नारायण अग्नि के सात फेरे लेकर ब्राह्मण के कह देने से एक स्त्री और पुरुष पति पत्नी के संबंध में बंध जाते हैं, और उनका वह संबंध जन्म जन्मांतर का संबंध बन जाता है। इसी प्रकार से बहुत सारी बातें हम दूसरों से सुनकर मान लेते हैं।
यहां तक कि मैं जीव हूं मैं ब्राह्मण हूं मैं भारतीय हूं इत्यादि को सुन कर के ही मान रखा है।
यह कर्म है यह पाप है यह पुण्य है यह स्वर्ग है यह नर्क है यह कर्म फल है इन सारी चीजों को हमने पढ़कर या सुनकर ही मान रखा है।
यदि हम अपने बारे में बात करें तो सत्य यह है कि लगभग हर दिन आरती में हम कहते हैं गाते हैं ओम जय जगदीश हरे प्रभु जय जगदीश हरे। तन मन धन सब तेरा सब कुछ है तेरा ,तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा।
यह संकल्प हर आरती में की जाती है आश्चर्य की बात है एक बार जब संकल्प कर लिया गया तन मन धन सब तेरा सब कुछ है तेरा। तो फिर दूसरे दिन देने के लिए क्या बचा?
हरिश्चंद्र की कथा आती है स्वप्न में जब सबकुछ उन्होंने दान दे दिया विश्वामित्र को और दूसरे दिन जब स्वप्न में ही संकल्पित सिक्का देने की बात आई और जब हरिश्चंद्र ने कहा कि ठीक है राजकोष से इनको सिक्का दे दिया जाए तो विश्वामित्र ने कहा कि जब तुमने राज राज्य दान में दे दिया तो राजकोष तुम्हारा कहां बचा ?और अपने उसे सिक्के को पूरा करने के लिए हरिश्चंद्र अपनी पत्नी और अपने बेटे तक को और स्वयं को भी बेच करके संकल्प पूरा किया।
तो नारायण जब एक बार संकल्प कर लिया गया तन मन धन सब है तेरा सब कुछ है तेरा फिर दूसरे दिन वही संकल्प करते हैं इसका अर्थ क्या है इसका मतलब हुआ कि हमारा संकल्प कभी भी सही नहीं था झूठ मूठ की आरती गा ली और ईश्वर को धोखा देते रहे।
सच में जब जनक जैसा संकल्प होता है, तब जाकर के आत्मज्ञान फलीभूत होता है जिस प्रकार से ब्राह्मण के यह कहते ही कि आज से आप दोनों पति पत्नी हैं हम बिल्कुल ही इस वचन को आत्मसात कर लेते और स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे को पति पत्नी स्वीकार कर लेते हैं और 1 जन्म की तो छोड़िए सात जन्मो तक का बंधन हो जाता है।
जिस दिन हमारी निष्ठा इसी तरह से गुरु वचनों पर हो जाएगी उसी दिन सद्गुरु का उपदेश फलित हो जाता है आगे आप अष्टावक्र गीता में पढ़ेंगे जब जनक को ज्ञान हो गया और जनक और अष्टावक्र दोनों कई दिनों तक समाधिस्त रहे जिसके कारण राज्य में अव्यवस्था हो गई तो राज व्यवस्था चलाने वाले लोग आकर के जनक जी से मिले और उन्होंने समस्या बताई। जनक जी ने कहा -अब कौन जाए? हमने तो सब कुछ गुरु को समर्पित कर दिया राज्य और राजा दोनों का ! अब तो जो आदेश गुरुजी वही होगा। इस प्रकार का समर्पण- इस प्रकार की निष्ठा जिस दिन हो जाएगी उस दिन गुरु का वह एक ही उपदेश #तत्वमसि शिष्य के जीवन में फलित हो जाएगा।
सच कहूं नारायण तो शिष्य की योग्यता ही उसे मुक्त करती है जिस प्रकार से बहुत सारे बीज बिखेर दिए जाएं लेकिन उन बीजों में से उपयुक्त जगह पर बोया गया बीज ही वृक्ष बन पाता है फल दे पाता है नहीं तो अधिकांशतः बीज नष्ट हो जाते हैं।
ठीक इसी प्रकार से योग्य शिष्य को दिया गया उपदेश तत्क्षण फलित हो जाता है।
एक कथा है जब जनक ने अष्टावक्र से कहा कि क्या एक बार घोड़े के पागडे में पैर रखने में जो समय लगता है क्या उतने समय में ज्ञान हो सकता है ?तो अष्टावक्र ने कहा हां। फिर अष्टावक्र ने प्रश्न किया की जनक ज्ञान हो सकता है, लेकिन इसके लिए पात्रता होनी चाहिए, योग्यता होनी चाहिए , क्या यह योग्यता तुममे है?और उसी क्षण, आत्मज्ञान की उत्कट इच्छा रखने वाले राजा जनक जो आत्मज्ञान पाने की शर्त है उस शर्त को पूरा करने के लिए तैयार हो गये।
*******
शास्त्रों का ज्ञाता होने के कारण राजा जनक जानते थे कि मोक्ष के लिए, आत्मज्ञान के लिए आवश्यक है कि शिष्य अपने अहंकार से मुक्त हो ,शरीर मन के भाव से मुक्त हो ,शास्त्र और शास्त्र के ज्ञान से मुक्त हो ,सभी प्रकार के बाहरी उपादानों से अपने को मुक्त कर देना ही उसकी पात्रता है ।इन सब का कारण अहंकार है जिसके छूटते ही व्यक्ति का आत्मा से उसी क्षण संपर्क हो जाता है
राजा जनक ने अष्टावक्र के सामने उसी क्षण समर्पण कर दिया और कहा कि- शरीर मन बुद्धि अहंकार सब कुछ मैं आपको समर्पित करता हूं- सिर्फ कहा ही नहीं किया भी और समर्पण भाव आते ही अहंकार खो गया जनक का जनकपना पिघल गया स्थूल से संबंध छूट गया और सूक्ष्म में प्रवेश हो गया।
*****ओम् नमोनारायण
[8/25, 10:54 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता-
महाराज जनक को तत्क्षण बोधत्व की उपलब्धि, कोई चमत्कार नहीं था।
जब विवेकानंद जी पहुंचे रामकृष्ण परमहंस जी के पास और ईश्वर के संबंध में प्रश्न पूछा तो कहते हैं कि रामकृष्ण ने अष्टावक्र गीता ही दिया पढ़ने को। कि पढ़कर सुना हमें। और विवेकानंद जी को पढ़ते पढ़ते ही स्वानुभूति हो गई।
हम भी जब पहली बार पढ़ रहे थे तो
पहले प्रकरण का छठा सूत्र-
धर्माऽधर्मौ सुखं दुखं मानहानि न ते विभो।
न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।
इस श्लोक के अर्थ में ही काफी समय तक स्थिति हो गई थी।
तो अभिप्राय यह है कि नारायण!
जैसे एक आदमी कुछ लिखते लिखते लघु शंका के लिए जाते हुए लेखनी को कान में फंसा लिया। फिर जब आकर लिखने बैठा तो लेखनी गायब !
भूल ही गया कि लेखनी कान में है।लगा ढूंढने, काफी समय बीत गया लेखनी न मिलनी थी,न मिली।
अचानक कोई आया मिलने,पूछ लिया क्या ढूंढ रहे हो?
अरे लेखनी नहीं मिल रही।
कौन सी? *एक तो तुम्हारे कान में फसी है*
जैसे ही यह गुरु मंत्र सुना "कान में फंसी है" वैसे ही समस्या हल हो गई।
लेखनी मिल गई।
नारायण! खोई थोड़े न थी, भूल गयी थी।
बस! इतना ही खेल है नारायण।
*बोध श्रम साध्य नहीं है*
स्वरुप का विस्मरण है,
उसका स्मरण ही निराकरण है।
फिर!
समस्या क्या है?
समस्या है आसक्ति,
समस्या है इस शरीर से,इस संसार से,सुख प्राप्ति की आशा।
समस्या है अपने- अपने पने के खो जाने का भय।
जिस दिन इन सबसे ऊपर आपने बोध को लक्ष्य बना लिया, उसी दिन अप्राप्त का भ्रम मिट जाएगा।
नारायण!
कल से हम अष्टावक्र गीता के प्रथम प्रकरण की शुरुआत करेंगे। जिसमें 20सूत्र ( श्लोक) हैं।
नारायण सांख्य योग पर दिया और सुना गया ये वक्तव्य आध्यात्म का अनूठा अप्रतिम अद्वितीय ग्रंथ है।
हमारा यह प्रयास क्षुद्रातिक्षुद्र है।
गुरु कृपा,आत्म कृपा, और ईश्वरीय अनुकंपा के आलोक में, स्वानंद वर्धन और विश्व कल्याण के भावना से आपके समक्ष विनीत भाव से निवेदित है,
आपका
अनुग्रही
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[8/26, 10:12 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता---
प्रथम प्रकरण सूत्र एक
जनक जी प्रश्न करते हैं---
*कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।*
*वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि मम प्रभो।।*
********
नमोनारायण यह जो प्रश्न पूछा है जनक जी ने- अष्टावक्र जी से प्रभो! ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? मुक्ति कैसे होती है? और वैराग्य कैसे प्राप्त होता है? यह हमें बताएं।
नारायण! आध्यात्म में मनुष्य की चार श्रेणियां बताई गई हैं।
पहला मूढ़
दूसरा अर्थार्थी
तीसरा जिज्ञासु
और चौथा ज्ञानी
तो नारायण ! ज्ञानी तो प्रश्न विहीन होता है।
और मूढ़ भी अधिकांशतः प्रश्न विहीन जीवन ही जीता है।
अथार्थी के जीवन में प्रश्न तो होते हैं, लेकिन वो प्रश्न भावी जीवन को लेकर होंगे।
भविष्य के योजनाओं को लेकर होंगे।
समस्याओं के समाधान को लेकर होंगे।
जो प्रश्न जनक जी ने पूछा, वो प्रश्न केवल और केवल जिज्ञासु ही पूछ सकता है।
*मूढ़* अर्थात इंद्रियों और उनके विषयो में इतना लिप्तता कि कुछ भी सोचने विचारने की आवश्यकता नहीं।
*जब , जहां, जैसे, जितना, इंद्रिय तृप्ति का संयोग बना भोग लिया।*
नारायण!
इन प्रश्नों का उदय होना, अर्थात आप शरीर और उसके भोग से उपर उठकर विचार कर रहे हैं।
कथं ज्ञानमवाप्नोति?
नारायण ! ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? तो यहां एक शंका होता है कि - ज्ञान तो नित्य निरंतर स्वत: प्राप्त ही है। चराचर जगत में ज्ञान विहीन कोई कैसे हो सकता है?
तो नारायण अध्यात्म जगत में ज्ञान का अर्थ *आत्मज्ञान*से है।
आत्मज्ञान ही ज्ञान है,शेष सब विज्ञान है। जानकारी है । सूचना है।
*कथं मुक्तिर्भविष्यति*
मुक्ति किससे?
नारायण ! जब तक बंधन का अनुभव नहीं होगा, जब-तक वर्तमान या भविष्य के मायाजाल के प्रति वितृष्णा नहीं उपजती तब-तब मुक्ति की कामना भी नहीं होती।
वैराग्यं च कथं प्राप्त
*वैराग्य*
मतलब? पारिवारिक जीवन का परित्याग कर गेरुए वस्त्र धारण करना,धूनी रमाना ।
नहीं कदापि नही
वैराग्य का अर्थ है* किसी भी प्राप्त विषय का सेवन बिना भोग की अभिलाषा के*
यदि पुनः उस भोग की वासना उठी, तो उसी क्षण वैराग्य नष्ट हो जाता है।
********
नारायण! एक अपने जीवन की घटना , वैराग्य पर।
सन ८६के आसपास एक दिन वैराग्य हुआ और हम चल पड़े ईश्वर के प्राप्ति के लिए , नेपाल के घने जंगलों में।
शाम का अंधेरा हो रहा था हम चले जा रहे थे, अचानक कानों में घंटियों की ध्वनि गूंज उठी।हम उधर ही चल पड़े। जाकर देखा तो एक आश्रम में आरती हो रही थी। शामिल हुए। फिर भोजन, फिर शयन। प्रातः नास्ते के बाद महात्मा जी ने हमें बुलाया,सारी कहानी सुनी जो हमने सुनाई। और उन्होंने कुछ ऐसे ऐसे तर्क दिए कि हम पुनः घर वापस आ गए।
तो नारायण ये था हमारा क्षणिक वैराग्य।
लेकिन सच मानिए नारायण! जब तक भौतिक जगत से वितृष्णा नहीं होती, ये प्रश्न उठेंगे ही नहीं
लेकिन मनुष्य जीवन की सार्थकता तभी है जब हर मन में ये प्रश्न उठे।
ओम् नमोनारायण।
[8/27, 10:41 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता--
*मुक्तिमिच्छासि चेत्तात विषयान् विषवत्यज।*
*क्षमाज्जर्वदयातोषं सत्यं पीयूषवद् भज्।।*
नमोनारायण! अष्टावक्र जी पहले वैराग्य का स्वरूप बतलाते हैं क्योंकि वैराग्य हुए बिना मनुष्य आत्मज्ञान का अधिकारी नहीं बनता यह प्रारंभिक शर्त है।
एक बात काफी गंभीरता से मैं कहना चाहूंगा की यदि वैराग्य ना हो और योग्य गुरु के द्वारा आत्म तत्व का बोध करा भी दिया जाए तो भी उसका पूर्ण लाभ शिष्य को नहीं मिलता ज्ञान टिकता ही नहीं है या दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं की वह गुरु प्रदत्त जो ज्ञान है वह वैराग्य के बिना विकृत हो जाता है।
यदि मुक्ति की इच्छा है तो हे प्रिय! विषयों को विष के समान जानकर त्याग दो, और क्षमा सरलता,दया, संतोष, और सत्य का अमृत के समान सेवन करो।
नारायण! मुक्ति की इच्छा भी हो और विषयों की भोग वासना भी हो तो ये वही अवस्था है जैसे रोगी दवा और अपथ्य का एक साथ सेवन करे।
विषयों के भोग के लिए इंद्रियां चाहिए और इंद्रियों के लिए शरीर।*शरीर और शरीर में अहंभाव अज्ञान है*
इसी अज्ञान के कारण तो ज्ञान ढका हुआ है।
ज्ञान का ढका जाना संभव तो नहीं है लेकिन यह वैसे ही है जैसे *आकाश में बादल यदि बादल छाए हुए हों तो हम कह देते हैं आज तो *बादलों के वज़ह से आकाश नही दीख रहा* जबकि ये भ्रम है। बादल हैं तब भी आकाश है और बादल नहीं है तो भी आकाश तो है ही।
वैसे ही- *अहंभाव भी ज्ञान में ही है* लेकिन *मैं शरीर हूं* ये अज्ञान *मैं चैतन्य बोधस्वरूप हूं* को होने नहीं देगा।
आइए एक उदाहरण से समझते हैं
पंचदशी से- एक मशाल जल रहा है , और उसके प्रकाश में नृत्य हो रहा है।
उस मशाल का प्रकाश सभी कलाकारों को, व उनके हाव-भाव को प्रकाशित कर रहा है।
नृत्य बंद हो गया।सब चले गए। अब! अब वो मशाल किसको प्रकाशित कर रहा है?
*सबके अनुपस्थिति को*
बस यही ज्ञान है नारायण ।जब इंद्रिय विषय संयोग होता है तब ज्ञान उस संयोग को प्रकाशित करता है। और जब इंद्रियां निष्क्रिय होती हैं तो उनकी निष्क्रियता को जो प्रकाशित करता है वही बोध है।
अब होता क्या है कि- इंद्रियां और उनके विषयों के भीड़ में उस प्रकाशक की ओर दृष्टि जाती ही नहीं। वैसे ही जैसे नृत्य को देखते हुए मशाल पर दृष्टि नहीं जाती।
इसीलिए ये पहला श्लोक अष्टावक्र जी ने कहा विषयान् विषवत्यज।
अर्थात जब-तक दृष्टि विषयों और उनके भोगों में रहेगी, ज्ञानोपल्ब्धि नहीं होगी।
अब - क्षमा आर्जव दया तोषं सत्य
नारायण ! ये एक एक शब्द का विवेचन काफी लंबा हो जाएगा ।
विद्वज्जन ! थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना
क्षमा- आपके भीतर द्वेष, कटुता नहीं रहने देता।
सरलता- जो भीतर, वही बाहर कोई बनावट नहीं।
दया - है जहां , करुणा है वहां।
संतोष- सभी भागमभाग,छीना झपटी,से उपरामता।
सत्य- जो, जहां जैसा, जितना,समझ में आया वही कहना,
ये वो अमृत हैं, जिनका सेवन उस पात्र में बोधत्व की पात्रता उत्पन्न करते हैं, जो इनका सेवन करते हैं।
नारायण! मैं पहले भी कह चुका हूं, मैं क्षुद्र मति भला आध्यात्म के सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ पर कुछ लिखने की *धृष्टता* जो कर रहा हूं वह आप सबके विवेक के बल पर।
मैं जानता हूं कि आप हमारे गलतियों को भी सुधार कर और अच्छे से समझ जाएंगे।
मैं तो बस *इंगित* कर रहा हूं ।
*******
नमोनारायण नमोनारायण नमोनारायण
[8/28, 9:14 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता-
सूत्र ३
*न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुद्घौर्न वा भवान्।*
*एषां साक्षिणमात्मामं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये।।*
नमोनारायण!
जनक जी के पूछे गए प्रश्न
"कथं ज्ञानमवाप्नोति"
के उत्तर में अष्टावक्र जी ने यह श्लोक कहा।
नारायण! कल जो विवेचना हुआ है - विषयान विषवत्यज और क्षमा..... पीयूषवद् भज का
सत्य कहूं तो पूरा मनुष्य जीवन काल या कई जन्म इस एक श्लोक को आचरण में उतारने में लग जाते हैं। फिर भी कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है।
सच्चाई तो यह है कि जब हमारे आचरण में उपरोक्त श्लोक उत्तर जाए तब *इस श्लोक को सुनने के अधिकारी हम होते हैं*
और सच में फलित भी तभी होगा इस श्लोक का अभिप्राय।
लेकिन विवेचना के श्रंखला में तो अभी विवेचन होगा।
जब-तक बुद्धि तीक्ष्ण नहीं होगी, तब-तब काफी क्लिष्ट होगा।
अपने जीवन का एक अनुभव लिखना चाहूंगा जो इसी प्रसंग से संबंध रखता रखता है। काफी समय पहले स्वामी अक्रियानंद जी के आश्रम शाहदरा में हम भी इसी प्रश्नों को लेकर के गए थे। वहां जब जाकर कि हमने यह प्रश्न किया तो सीधे-सीधे हमसे यह कहा गया कि वह तुम ही हो। सच मानो नारायण उस बात को सुनकर के बिल्कुल भी विश्वास नहीं हुआ उस बात सोचते विचारते हम घर आ गए दिन महीने बीतते रहे लेकिन वह बात समझ में नहीं आई।
चिंतन मनन चलता रहा। फिर पंचदशी , पढ़ी सत्संग चला,
तो कहने का अभिप्राय है कि यह जो श्लोक है, अभी तक के हमारे अनुभव, ब्यवहार,सोच, और जानकारी के बिल्कुल विपरीत है*लेकिन है सत्य"
अष्टावक्र जी कहते हैं तूं न पृथ्वी है,न जल है,न अग्नि है,न वायु है,न आकाश है। अर्थात--तूं ये पांच नही है और न ही इन पांचों से निर्मित है।
बाबा तुलसीदास जी ने कहा- *छिति जल पावक गगन समीरा,पंच रचित यह अधम शरीरा।*
संपूर्ण दृश्य जगत इन्हीं पंच भूत समुदाय का समन्वय है।
जो भी रुप रस गंध स्पर्श और शब्द हैं इन्हीं पांचों के क्रिया कलाप हैं।
*एषां साक्षिणमात्मामं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये* तूं साक्षी है इन सबका चैतन्य रुप है ।
नारायण! सतत् जो भाषित हो रहा है, यह शरीर या यूं कहें कि इस शरीर से ही मेरा अस्तित्व है। मेरा पहचान है। और इस शरीर को ही ये कह देना* ये तूं नहीं है* ये तो वही बात हुई जैसे कोई कहे *सूर्य कहीं से भी नही उगता*
लेकिन नारायण! हमने पहले ही कहा है कि जबतक बुद्धि तीक्ष्ण नहीं होगी, भले ही आप सुन लो, मान भी लो लेकिन दृढ़ निश्चय, विश्वास नहीं होगा।
विषय गंभीर है--
चलिए एक प्रयोग करते हैं-
आपके पैर में कांटा चुभ गया,आप क्या कहेंगे? *मेरे *पैर में कांटा चुभ गया ।
मेरे और मैं, मेरा और मैं, ये एक नहीं है नारायण!
मेरा बटुआ,मेरा बेटा,मेरा घर, और मेरा सर, फिर मैं जानता हूं अपने बटुए को, बेटे को,घर को ।
****
वैसे ही मेरा शरीर।
ये शरीर तो एक बिद्युत बल्ब के तरह है, विद्युत है तो प्रकाशित है। नहीं तो नही।
********
जनक जी की एक कथा आती है एक दिन उन्होंने स्वप्ने देखा कि वह भिखारी हो गए भूख के मारे चला नहीं जा रहा है बड़ी मुश्किल से भिक्षा मांग कर थोड़ी सी चावल मिली और उन चावलों को वह मिट्टी के बर्तन में पका करके खाने के लिए बैठे ही थे की एक जंगली जानवर दौड़ता हुआ आया और उन चावलों को रौंदकर चला गया भूख के पीड़ा से जनक रो पड़े और उनकी नींद खुल गई वह सोचने लगे कि यह जनक सत्य है या वह जनक सत्य हैं इसी प्रश्न को उन्होंने दूसरे दिन अपने विद्वानों की सभा में रखा विद्वानों ने काफी विचार करने के बाद यह निर्णय लिया राजन! न यह सत्य है,न वह सत्य है सत्य अगर कुछ है तो इन दोनों का साक्षी।
शरीर के अवस्थाओं-बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ और वृद्धावस्था का दृष्टा कभी भी परिवर्तित नहीं होता।
नारायण! विषय गंभीर है, शेष कल.....
तब-तक आप भी मनन करें।
[8/29, 8:49 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता---
सूत्र 3
न पृथ्वी....विद्धि मुक्तये।।
गताकं से आगे---
सीधे शब्दों में कहें तो नारायण!
अष्टावक्र ने स्पष्ट कहा *वो साक्षी तूं स्वयं है।*
तूं का अभिप्राय है शरीर,मन, बुद्धि, चित्त, से भिन्न ज्ञान।
आप कोई वस्तु देखते हैं, आंख उस देखे वस्तु का रुप रंग देखती है, लेकिन जब-तक आप उस आंख के देखे गए वस्तु पर संज्ञान नहीं लेते, तब-तक देखा भी अनदेखा हो जाता है। सुना भी अनसुना हो जाता है। ये जो ज्ञान है, जिसके प्रकाश से सभी ज्ञानेन्द्रियां देखती सुनती, हैं।वह ज्ञान ही साक्षी है।
यह ज्ञान *सबमें* है जब आप सुसुप्ति से उठकर कहते हैं कि "आज मैं ऐसा सोया कि हमे कुछ नहीं पता" तो उस सुसुप्ति का भी साक्षी यह ज्ञान ही है , यह ज्ञान ही है जो आपके सभी मानसिक, शारीरिक क्रियाओं का साक्षी है।
इस शरीर के जन्म से लेकर मृत्यु तक का साक्षी यह ज्ञान ही है।
आपको अज्ञान का भी साक्षी यह ज्ञान ही है।
*मैं जानता हूं, और मैं नहीं जानता हूं* इन दोनों अवस्थाओं का साक्षी ज्ञान ही है। ईश्वर दर्शन, वैकुंठ वास, स्वर्ग-नरक गमन, यहां तक कि प्रलय और उत्पत्ति का भी साक्षी यह ज्ञान ही है।
*ज्ञान की अनुपस्थिति, सिद्ध नही कर सकते हो आप* इसलिए ज्ञान शाश्वत सत्य है।
नारायण! सभी जीवों में ज्ञान का बोध मैं हूं करके ही होता है। और सामान्यत:*मैं हूं*का अर्थ शरीर को लेकर ही सभी जीव करते हैं।
जब तीक्ष्ण बुद्धि से नेति नेति के सिद्धांत पर चलते हुए ये भी नही, ये भी नही करते करते अंततोगत्वा जो शेष बचे वो ज्ञान विरले को ही बोध होता है।
जब ये शरीर मरण शैय्या पर अंतिम समय में होता है उस समय भी हर क्रिया कलाप का ज्ञान होता है।वह साक्षी इस शरीर को तिल तिल मरते हुए देखता हुआ भी मरता नहीं, वह इस शरीर के होने वाले मृत्यु का भी साक्षी है वही आप स्वयं हो।
वैसे ही जैसे स्वप्न में सभी इंद्रियां,शरीर सोया हुआ रहता है, लेकिन ज्ञान पूरी तरह जगा हुआ स्वप्न का साक्षी बना रहता है।
*प्रज्ञानं ब्रह्म*
नारायण आज यहीं विराम देते हैं। कल के सूत्र 4के ब्याख्या के लिए।
*कथं मुक्तिर्भविष्यति*
की ब्याख्या कल।
नमोनारायण
[8/30, 11:28 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता---सूत्र चार
*यदि देहं पृथक्कृत्य चित्ति विश्राम्य तिष्ठसि।*
*अधुनैव सुखी शान्त:बन्धमुक्तो भविष्यसि।।*
नमोनारायण !
जनक जी ने अपने पहले श्लोक में तीन चीजें पूछी थी ज्ञान कैसे प्राप्त होता है, मुक्ति कैसे होती है ,और वैराग्य कैसे प्राप्त होता है तो ज्ञान के संबंध में अष्टावक्र जी ने उत्तर दे दिया वैराग्य के संबंध में उत्तर दे दिया अब अष्टावक्र जी तीसरा प्रश्न मुक्ति कैसे होती है उसका उत्तर देते हुए कहते हैं की यदि स्वयं को देह से पृथक करके चित्त को विश्राम देकर के स्थित हो जाते हो तो अभी सुखी शांत और बंधन मुक्त हो जाएगा।
यहां कुछ चीजें ध्यान देने वाली है पहला कि यदि मुक्ति की इच्छा है तो विषयों को विष के समान त्यागना पड़ेगा क्षमा सरलता दया संतोष और सत्य का सेवन करना पड़ेगा उसके बाद स्वयं को चैतन्य रूप शरीर से पृथक जानकर स्थितप्रज्ञ होना पड़ेगा लेकिन अगर आप सुख और शांति का अनुभव करना चाहते हैं स्वयं को बंधन मुक्त अनुभव करना चाहते हैं तो आपको स्वयं को इस पंच भूत शरीर से अलग करके और चित् को शांत करके विश्राम की अवस्था में बैठना पड़ेगा।
****कुछेक बिंदुओं को क्रमवार विचार करें- तो सही आकलन हो सकेगा।
1- जिस किसी भी जिज्ञासु के मन में मुक्ति की जिज्ञासा है उसका सर्वप्रथम पहला कर्तव्य*शरीर से भोगे जाने वाले पदार्थों में विषवत भावना रखें* । अर्थात जैसे विष सेवन शरीर का सर्वनाश करता है वैसे ही भोग आपको बंधनों में ही बांधते हैं*
2-इसके बाद स्वयं को पंचभूतों से अलग करके जानना*साक्षी भाव*
3-*स्वंय को पंचभूतों से अलग करके, सभी भोगो से विरक्त हो चित्त विश्रांति की अवस्था में बैठा हुआ तत्क्षण ही सुखी, शांति, और बंधन मुक्ति का अनुभव करता है।*
नारायण! यदि मैं स्वयं का अनुभव कहूं तो बोध सरल है, कारण? जो स्वाभाविक है,उसका अनुभव सरल ही होगा और होना चाहिए भी।
यदि कठिन है तो उस *साक्षी भाव में सतत स्थिति*
ये जो भोगों में आसक्ति है, मानापमान की अवस्था है, मैं मेरा -तूं तेरा का भाव है। ये क्षण क्षण में विचलित करतें रहते हैं।
जिस दिन हम स्वयं के शरीर को भी दूसरे के शरीर जैसा और दूसरे के शरीर को भी स्वयं के शरीर जैसा अनुभव करने लग जाएंगे, उस दिन हमारी सार्वभौमिकता सिद्ध हो सकेगी। उस दिन हम सही अर्थों में क्षमा,दया,, और सत्य को समझ पाएंगे।
इस श्लोक में अष्टावक्र जी ने एक शब्द प्रयोग किया है*अधुनैव*अर्थात कोई भविष्य का सांत्वना नहीं, प्रलोभन नहीं। तत्काल-तत्क्षण बंध मुक्तो भविष्यसि।
है कोई और किसी मत मतांतर में, इस तरह की उद्घोषणा करने वाला?
अभी जल पीजिए तुरंत प्यास बुझेगी।
केवल कहा ही नहीं, जनक जी को अनुभव करवा भी दिया।
नारायण! *केवल आप ही कर सकते हैं अपना कल्याण* अन्य कोई भी नहीं।
जिस दिन आपके विवेक में यह बात घर कर गई , वह दिन आपके जीवन का क्रांतिकारी दिन होगा। सही में उस दिन ही आपकी निद्रा टूटेगी।
* मोहनिसा जग सोवनहारा।
देखहिं सपन अनेक प्रकारा।।
नारायण! अनेक ग्रंथों में कर्म फल कर्मभोग , पाप पुण्य आदि का वर्णन है। लेकिन अष्टावक्र जी इन सबकी कोई चर्चा नहीं करते। किसी मंत्र, किसी विधा, कोई साधना, कोई कर्मकाण्ड कोई जप तप नहीं।
सच भी है-ठूठ का भूत देखने से ही भागेगा मंत्र से नहीं।
मंत्र, साधना,जप अनुष्ठान विषयांतर हैं नारायण। जो मन बुद्धि चित्त सांसारिक विषयों में लिप्त थे उनको वहां से हटाकर अन्य ओर मोड़ देना ही प्रयोजन है।
पुनर्जन्म और कर्म भोग को समझने का प्रयास---
कल्पना करें की कुछ स्वर्ण आभूषणों में चेतना आ जाए और वो आपस में बात करते हैं मंदिर में बांके बिहारी के गले में सोने का जंजीर पड़ी हुई है उस मंदिर में बांके बिहारी के दर्शन के लिए कुछ एक औरतें जाती उनके गले में उनके कान में उनके नाक में भी सोने के आभूषण होते अब किसी स्त्री की कान में पड़ा हुआ कुंडल अपने आप को दीन हीन मानता हुआ अपने भाग्य को कोसता है और कहता है काश हम भी बांके बिहारी की कानों के कुंडल होते तो हमारी कितनी शोभा होती खैर हमारे कर्मों का फल ही है जो हम इस कुरुप स्त्री के कानों में पड़े हुए हैं और उधर बांके बिहारी के कान में पड़ा पड़ा हुआ कुंडल अहंकार में डूबे जा रहा है वह सोचता है कि यह हमारे पुण्य कर्मों का ही फल है जो आज मै बांके बिहारी के कानों में शोभा पा रहा हूं। बस इसी तरह का अहंकार लिए हुए जीव जन्म जन्मांतर से भटक रहा है बांके बिहारी के कानों में पड़ा हुआ कुंडल स्त्री के कान में पड़ा हुआ कुंडल दोनों ही सोने के ही बने हुए हैं यदि सोने के भाव में देखा जाए तो दोनों ही समान है ना कोई प्रारब्ध है, ना कोई कर्म फल जैसे ही जिज्ञासु अपने स्वरूप में आता है सारे कर्म कर्म फल और शरीर गिर जाते जब शरीर ही नहीं रहा तो शरीर से होने वाले कर्म और उनका फल स्वयं ही महत्वहीन हो जाते हैं ।
***** इस प्रकार की भावना करके,शरीर से स्वयं को पृथक करके अपने साक्षी भाव में शांत हो जाना ही परम पुरुषार्थ है इस मनुष्य जीवन का ।
अब आगे के सोलह श्लोकों में इसी श्लोक का विस्तार है। विषय की गंभीरता और गहनता को देखते हुए आवश्यक भी है।
क्रमशः
एक बार पुनश्च योगयोगेश्वर, सोलह कलावतारी,गौपालक,कुंजविहारी, राधा माधव, अर्जुन सखा, सुदामा के परम मित्र, भक्त वत्सल, कृष्ण के जन्म दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
[8/31, 9:38 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता--सूत्र पांच
*न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचर: *।
*असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।*
अष्टावक्र जी *सूत्र चार *में कहे गए साक्षी भाव का विस्तार करते हुए पंद्रह श्लोकों में विस्तृत विवेचन करते हैं।
इस श्लोक में इसी साक्षी भाव का विस्तार करते हुए कहते हैं- तूं ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र वर्ण वाला नहीं है।
तूं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम वाला भी नहीं है।
और न ही तूं आंख नाक कान मुंह और त्वचा आदि इंद्रियों का विषय है।
*तूं असंग है, निराकार है, हे विश्व साक्षी! ऐसा जानकर सुखी हो।*
********
नारायण! उपरोक्त सभी उपाधियां वर्ण, जाति,आश्रमी, रुप,रस गंध स्पर्श और शब्द,शरीर को लेकर ही हैं।जब *देहं प्रथक्कृत्य* हो गया ,शरीर से अलग होकर स्थिति हो गई, तो स्वाभाविक ही शरीर के सभी उपाधियों से भी पृथक हो गया।
इसी बात को अष्टावक्र जी और दृढ़ करने के लिए इस श्लोक को कहते हैं।
* आत्मा वर्ण विहीन, जाति विहीन, लिंग विहीन, आश्रम विहीन, धर्म विहीन ( हिंदू, मुसलमान, ईसाई,सिख, यहूदी,आदि) है*
कर्ता, भोग्य और और भोक्ता के त्रिपुटी से अलग है आत्मा।
केवल साक्षी भाव, दृष्टा भाव,
वही स्वभाव है तेरा ।सभी प्रपंचों का दृष्टा, मात्र है तूं ।
न जन्म का उत्सव- न मृत्यु का दुःख। दोनों का साक्षी- दृष्टा
ऐसा जानकर सुखी हो।
नारायण! यह श्लोक कोई आश्वासन नहीं देता, किसी स्वप्न लोक के भविष्य का दिवा स्वप्न नहीं दिखाता आपको।
बिल्कुल तत्क्षण प्रभाव दिखाने वाला उपदेश।
भविष्य के आश्वासन से संप्रदाय भरे पड़े हैं।
ऐसा करो तो वैसा होगा। होगा नहीं नारायण! अष्टावक्र जी ने कहा- सुखी हो, शांत हो, मुक्त हो
ओम् नमो नारायण
[9/1, 10:14 PM] JAy Narayan Goswami: *धर्माऽधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।
न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्तएवासि सर्वदा।।*
नमोनारायण --
धर्म -अधर्म, सुख-दुख तुम्हारे नही है ये मन के हैं।हे विभो! तुम कर्ता भोक्ता नहीं हो,सदा सर्वदा मुक्त ही हो।
जन्म के समय किसी जन्म जात बालक का कोई धर्म नहीं होता है। जैसे जैसे वह बड़ा होता है धीरे-धीरे उसे धर्माधर्म का ज्ञान परिवार और समाज से मिलने लगता है। वैसे ही मेरा तेरा का अनुभव करता हुआ प्राप्ति -अप्राप्ति में, सुख-दुख का अनुभव करता है।
कभी ऐसा भी होता है जब न सुख है न दुःख।
मन एक कोरे कागज जैसा है,छोटा अबोध बालक धर्म के नियमों से अनभिज्ञ,न कर्ता पने का अभिमान,न भोक्ता का बोझ, मस्त जीवन, कभी समय मिले तो देखना नारायण!
जैसे जैसे उम्र बढ़ती है मन और बुद्धि सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक, तमाम तरह के नियमों में बंधा हुआ हंसना ही भूल जाता है।
*ये सब मानसिक बंधन हैं*
जब-तक आप समाज में हो तब-तब सामाजिक, जब-तक परिवार में हो, पारिवारिक, जब-तक जिस आश्रम में हो उसके नियम पालनीय हैं। *अवश्य ही पालन किया जाना चाहिए*
लेकिन एक मुमुक्षु को यह समझना होगा कि ये सब मानसिक हैं।
******
नारायण! एक सत्य जो अष्टावक्र गीता के मनन चिंतन के संबंध में है, वो बताना चाहता हूं कि अष्टावक्र गीता का लाभ वही ले सकता है जो *मंत्र वत इसे अंगीकार कर सकेगा।*
मां ने कहा *ये तुम्हारे पिता हैं*और बालक बोल पड़ा *पिताजी*
कोई प्रश्न नहीं, कोई शंका नहीं, कोई संदेह नहीं।
जब-तक आप शरीर,मन बुद्धि और चित् के स्तर पर विचार करेंगे तब-तब इस गीता का भाव हृदयंगम नहीं होगा।
*मन बुद्धि चित्त शरीर, संसार ये सब जिससे जाने जाते हैं वह ज्ञान हो आप*
सभी ज्ञेयों का ज्ञाता जो है *ज्ञान *वही आप हो।
विशुद्ध ज्ञान। यदि आप ये कहो मैं ज्ञान हूं तो भी द्वैत भाव होता है। *बस ज्ञान*
मैं भी नहीं और यही ज्ञान सर्वत्र है, सर्वदा है।
जीवाणु, चींटी, फतिंगा, पक्षी, पशु, मनुष्य देवता, राक्षस,यक्ष, किन्नर, ये सब रुप है, सबमें ज्ञान ही है जो चेतना प्रदान करता है। और वह ज्ञान भिन्न भिन्न नहीं है। सबमें*मैं हूं* करके वह ज्ञान ही प्रकाशित है। अब यदि चींटी पना, पक्षी पना, मनुष्य पना, देवता पना और राक्षस पना हटा दें तो जो ज्ञान बचेगा वही है।
*******
इसी ओर इशारा करते हुए कहा मुक्त एवासि सर्वदा।
चींटी मुक्त नहीं हो सकती, लेकिन चींटी में जो ज्ञान है वह तो मुक्त है।
नमोनारायण
शेष कल---
[9/2, 10:27 PM] JAy Narayan Goswami: *अष्टावक्र गीता--सूत्र सात
*एकोदृष्टाऽसि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।*
*अयमेव हि ते बन्धो दृष्टारं पश्यसीतरम्।।*
***नमोनारायण
सबका दृष्टा, साक्षी एक ही है जो सर्वदा मुक्त है।
दूसरे को दृष्टा देखना, समझना ही बंधन है।
अद्वैत को प्रतिष्ठित करते हुए अष्टावक्र जी आत्मा और परमात्मा के द्वैतवाद को भी नकारते हुए कहते हैं कि यही तुम्हारा बंधन है कि तुम स्वयं से अलग किसी अन्य को साक्षी या दृष्टा मानते हो।
अध्यात्म जगत में यह जो अद्वैतवाद की अवधारणा है, यह केवल और केवल सनातन धर्म में ही है। कोई भी अन्य धर्म इस सर्वोच्च शिखर को छू नही पाये।
*******
नारायण!
जैसे आकाश में प्रकाशित सूर्य का प्रतिबिंब पृथ्वी पर असंख्य स्थानों में पड़ते हुए भी सूर्य खंडित नहीं होता।
जैसे पवन शीतल, उष्ण, सुगंधित या गंधहीन होकर भी विभाजित नहीं होता।
जैसे असंख्य घर या मटके बना देने से भी आकाश विभाजित नहीं होता वैसे ही साक्षी, ज्ञान, दृष्टा असंख्य मन बुद्धि चित्त से प्रकट होकर भी असंख्य नहीं होता।
वैसे ही जैसे एक पावर प्लांट से आने वाली विद्युत हजारों ट्रांसफार्मर से होती हुई करोड़ों घरों में बल्बों को प्रकाशित करते हुए भी, विद्युत एक ही है।
वैसे ही एक ही *ज्ञान *सभी मन बुद्धि चित्तों में चैतन्य हो रहा है।
वैसे ही जैसे एक आप अकेले ही एक ही समय में किसी के पुत्र, किसी के पिता, किसी के पति, किसी के चाचा, किसी के ताऊ, किसी के मामा, किसी के भतीजे, आदि आदि रूपों में विभाजित होते हुए भी आप एक ही होते हैं।
**जब-तक हमारी दृष्टि मटके में, घरों में, या सूर्य के प्रतिबिंबों में रहेगी तब-तब द्वैत भी रहेगा।
जैसे ही हमारी दृष्टि सूर्य में आकाश में देखती है, सभी द्वैत समाप्त हो जाते हैं।
*एक प्रश्न उठना लाजिमी है*
जब आत्मा ही परमात्मा है तो फिर जीव पीड़ा दुःख क्यों भोगता है?
क्यों परतंत्र की तरह असंभाव्य घटनाओं से प्रताड़ित होता रहता है?
एक है शरीर और दूसरा है साक्षी (समझने के लिए) जो भी क्रिया जगत है उसका संबंध मन बुद्धि चित्त और शरीर से है। और जो भी क्रिया का परिणाम है वो भी मन बुद्धि चित्त और शरीर तक ही है। कोई भी ऐसी क्रिया हो ही नहीं सकती जो चैतन्य को, साक्षी को प्रभावित कर सके।
एक दूसरा प्रश्न भी उठ सकता है कि फिर उपनिषदों में जो सृष्टि रचना है वो क्या है? यदि आत्मा और परमात्मा एक ही है तो ?
एक बात कहूं! जब कोई छोटा बालक प्रश्न करता है तो उत्तर वैसा ही दिया जाता है जो उस छोटे बच्चे के समझ में आ जाय।
जब कोई प्रश्न पूछता है कि ये दुःख हमें क्यों प्राप्त हुआ तो उसे समझाने के लिए कर्म और कर्म फल का सिद्धांत बना।
जबकि कर्म और कर्म फल के सिद्धांत के अनुसार कभी भी मुक्ति संभव नहीं है। क्यों कि आप ज्ञात कर्म सुधार सकते हैं,अज्ञात कर्मों का क्या करेंगे।
फिर लाखों करोड़ों जन्मों के कर्म और उनके फल,कब पीछा छूटेगा?
*******लेकिन यदि आप अभी स्वयं को इस शरीर का साक्षी जान लें तो इस शरीर के द्वारा किए गए कर्म और उनके फल के साक्षी होकर अपने ज्ञान निष्ठा में प्रतिष्ठित हो जाएं।
[9/3, 9:07 PM] JAy Narayan Goswami: *अष्टावक्र गीता-- सूत्र आठ अध्याय प्रथम*
*अहं कर्तेत्यहंमानं महाकृष्णाहि दंशित: ।*
* नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव ।।*
नमोनारायण
*अहंकार रूपी सर्प से दंशित तूं *मैं कर्ता हूं* यह मानकर दुःखी है*
* मैं कर्ता नहीं हूं ऐसा विश्वास रुपी अमृत पीकर सुखी हो*
यह मैं हूं , यह मुझे करना चाहिए,यह मैंने किया वो करूंगा, यह मेरा अधिकार है, ये मेरा है, ये सब अहंकार का ही दुष्परिणाम है।
* गुण ही गुणों में वर्त रहें हैं*
प्रकृते क्रियमाणानिं गुणै कर्माणि सर्वश।
* अहंकार विमूढात्मा कर्ताहं इति मन्यते।।*
नारायण!
क्रिया जगत आपसे अलग है।
आप स्वयं ही अज्ञानता से स्वयं को क्रिया जगत से जोड़कर दुखी हैं।
आप सभी क्रियाओं के *दृष्टा मात्र*हैं।
*अहंकार* आपसे असंभव कार्यों को करवाकर भी आपको संतुष्ट नहीं होने देगा। अहंकार का सबसे बड़ा दुर्गुण है स्वयं को विशिष्ट दिखाने का प्रयास।
और इस विशिष्टता की प्राप्ति के लिए कोई शीर्षासन कर रहा है, कोई जल समाधि का प्रयास करते हैं।
कोई चांद पर जा रहा है, कोई कृत्रिम सूर्य ही बना रहा है। फिर भी ये सारे लोग सुखी नही हैं।
जबकि एक ज्ञानी अहंकार का त्याग कर, चित् विश्राम की अवस्था में शांत और आनंदित है।
आश्चर्य है कि इस संसार में जैसे ही कोई होश सभालता है उसके अहंकार के पोषण वर्धन का ही निरंतर प्रयास किया जा रहा है। शिक्षण संस्थानों में, समाज में, संप्रदायों में, आश्रमों में, जहां देखो आपके अहंकार का ही पोषण हो रहा है। यही कारण है कि आज समाज में *असंतुष्टों और दुखियों* की संख्या ज्यादा है।
*अष्टावक्र जी ने कहा- मैं कर्ता नहीं हूं* बस इतना ही पर्याप्त है, सारे प्रतिस्पर्धा, समाप्त हो जातें हैं।
पीछे कहा जा चुकने के बाद भी पुनश्च एक बार कहने की आवश्यकता है कि "अष्टावक्र गीता तर्क,विचार विनिमय, या वाद विवाद का विषय कत्तई नहीं है।"हम तो इससे एक कदम और आगे बढ़कर कहना चाहेंगे कि-*अष्टावक्र गीता का एक एक श्लोक आत्मसात करने के लिए है।*
जो भी मनुष्य तर्क वितर्क या हां ना करना चाह रहें हैं वो इसके योग्य नही है।
फिर भी यदि *बार बार अध्ययन मनन और चिंतन किया जाए तो सार्थक परिणाम अवश्य आयेंगे*
*********
नमोनारायण
[9/4, 11:05 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता प्रथम प्रकरण सूत्र ९--
*एको विशुद्ध बोधोव्योऽहमिति निश्चयवह्निना।*
*प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोक: सुखी भव।।*
मैं विशुद्ध बोध हूं,ऐसी निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान को जलाकर सुखी हो।
नारायण! *विशुद्ध बोध*
अर्थात- सजातीय, विजातीय, और स्वगत भेद से रहित, आदि अंत से रहित, शाश्वत सत्य।
***********
नारायण ! सीधी सरल बात यदि *समझ में आ जाय तो*
नहीं तो विश्व के पुस्तकालय भरे पड़े हैं।
अध्यात्म के पुस्तकों से।
विश्व में अनेकानेक धर्म,मत , संप्रदाय,हैं ।
कमी गुरूओं की भी नहीं है। लेकिन फिर भी विश्व के शांत आनंदित सुखी मनुष्यों को उंगलियों पर गिना जा सकता है।
विरला ही कोई हो जिसकी उलाहना समाप्त हो गई हो।
भविष्य के अनिश्चितता से शायद ही कोई हो, जो निश्चिंत हो गया हो।
कितने हैं? जिनके जीवन से मृत्यु का भय समाप्त हो गया है।
और वो सीधी सरल बात है कि*मैं विशुद्ध बोध हूं*
सभी सजातीय विजातीय स्वगत भेद से परे। सब का ज्ञाता सबका प्रकाशक।
मृत्यु का भी साक्षी ।
निर्गुण।
वैसे ही जैसे- प्रकाश। बस उपस्थिति ही पर्याप्त है,सब अदृश्य दृश्य हो जातें हैं।
वैसे ही ।
नमोनारायण
[9/5, 8:46 PM] JAy Narayan Goswami: *अष्टावक्र गीता सूत्र १० प्रथम प्रकरण*
*यत्र विश्वमिदं भांति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।*
*आनन्दपरमानन्द: स बोधस्तवं सुखं चर।।*
"जहां" यह विश्व रस्सी में सर्प के समान (कल्पना में) अनुभव होता है, वही परम आनंद बोध तुम हो । अतः सुखपूर्वक विचरण करो।
*********
नमोनारायण!
"जहां "अर्थात आपके चैतन्य ज्ञान में - *रस्सी सर्प के समान* रस्सी सर्प ,स्वर्ण आभूषण, सीपी चांदी,का उदाहरण वेदांत में सर्वत्र बिखरे हुए हैं।
अपने विवेकानुसार इसे थोड़ा विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।
एक स्त्री है ( स्त्री भी सत्य नहीं है) अब आप के मन: स्थिति के अनुसार वो स्त्री सुंदर, कुरुप, हो सकती है।
वह मां,बहन, भाभी, चाची, पत्नी भी हो सकती है। ये जो दर्शन है एक स्त्री में वो है रस्सी में सर्प की कल्पना।
नारायण!
स्त्री में जगदंबिका का रुप देखकर नतमस्तक होने की इच्छा और स्त्री को नरक का द्वार समझकर दूर भागने की कल्पना, ये है रस्सी में सर्प का कल्पना।
विश्व को वासुदेव:सर्वम् मानकर अपना कल्याण कर लेना और विश्व को माया जाल समझकर भागते ही चले जाना ये है रस्सी में सर्प की कल्पना।
* अष्टावक्र जी ने कहा-
*जहां रस्सी में सर्प का कल्पना हो रहा है, वही बोध तुम हो*
मेरे नारायण!
न रस्सी सत्य है,न रस्सी में कल्पित सर्प।
सत्य है जहां रस्सी और सर्प दोनों अनुभव में आ रहें हैं।
रस्सी सर्प के मिथ्यात्व के संबंध में भगवान बुद्ध ने बड़ा अच्छा विवेचन किया है । कहते हैं- *यह सृष्टि न भ्रांति है,न मिथ्या है।बस शाश्वत नहीं है*
*क्षणिक सत्य* है।
लेकिन यह क्षणिक सत्य की अनुभूति होती है जिसे , वो*बोध* ही तुम्हारा अस्तित्व है।
****
थोड़ा और सरल करें -
जिस पर्दे पर फिल्म के चित्र प्रकाश और रील के माध्यम से दिखते हैं वहां पर्दा अचल रहकर अपने उपर आने वाले प्रकाश को स्पष्ट करता है।
चित्र बदलते हैं, पर्दा नहीं।
वैसे ही आपका बोध ,आपका ज्ञान तटस्थ रहकर विश्व को प्रकाशित करता है। फिर बुद्धि उसमें कल्पनाएं करती है।
जैसे भूत भावना से ग्रसित मनुष्य को खूंटी पर टंगे हुए अपने कुर्ते के हिलते हुए हाथ भी भूत का अनूभूति कराते हैं।
नारायण! *यह विश्व यदि आपको भयभीत करता है तो भी ये आपकी कल्पना है।*
और यदि
*यह विश्व आपको बन्धन में डालता है तो भी यह आपकी कल्पना है*
और
यदि*यह विश्व आपके मुक्ति मे सहयोगी हो रहा है तो यह भी आपकी कल्पना है।*
* ये तीनों कल्पनाएं जहां बनती- बिगड़ती हैं, और जो इन कल्पनाओं का मात्र दृष्टा है।वह आप हो।*
ऐसा जानकर सुखी हो।
[9/6, 9:02 PM] JAy Narayan Goswami: *अष्टावक्र गीता अध्याय प्रथम श्लोक ११*
*मुक्ताभिमानी मुक्तोहि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।*
किंवदन्तीह सत्येयं या मति: सा गतिर्भवेत।।*
यदि सीधे शब्दों में कहें तो इस श्लोक के माध्यम से अष्टावक्र जी आपको विश्वास दिलाना चाहते हैं कि गुरु, वेदांत, उपनिषद जो कह रहे हैं कि *तुम मुक्त ही हो* इसे स्वीकार करो पूर्णता से।
क्यों कि- ये जो किंवदंती है कि * जैसी मती वैसी गती* ये सत्य है।
[9/7, 8:30 PM] JAy Narayan Goswami: *अष्टावक्र गीता*अध्याय प्रथम श्लोक १२
* आत्मा साक्षी विभु: पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रिय:।*
*असंगो निस्पृह: शान्तो भ्रमात्संसारवानिव।।*
*****
अष्टावक्र जी *निर्गुण निराकार आत्मा*का परिचय देते हुए कहते हैं-आत्मा साक्षी है,ब्यापक है, पूर्ण है, एक है, मुक्त है, चैतन्य स्वरूप है,क्रिया रहित है,असंग है, इच्छा रहित है, शान्त है, यह *भ्रम*से बन्धन ग्रस्त जैसा लगता है।
नमोनारायण
आश्चर्य है कि ब्रह्म, आत्मा, निर्गुण निराकार है, फिर भी उपरोक्त सारे गुण आत्मा में ही हैं।
यहां यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि ये सभी गुण आत्मा में है नहीं। हमारी भ्रमित बुद्धि को समझाने के लिए ही ये गुण आत्मा में आरोपित हैं।
*साक्षी* आप समझ गए होंगे *गवाह*
केवल ये कहने वाला कि हां *मैं जानता हूं*
*ब्यापक* अर्थात कोई ऐसा स्थान नहीं जहां वो न हो।
*पूर्ण* यहां विचारणीय है कि- एक कोशिका भी अपने आप में पूर्ण है। एक जन्म जात बालक भी पूर्ण है एक बीज भी पूर्ण है,
*एक है* ज्ञान, एक ही है चाहे कोशिका हो या हाथी ।*मैं हूं*सबमें एक जैसा ही है।
*मुक्त* भला साक्षी या गवाह बधेगा क्यों? इसलिए मुक्त है।
*चैतन्य और क्रिया रहित*
चैतन्य रहकर सभी क्रियाओं का दृष्टा होकर भी,अक्रिय।
*असंग* संग करे भी तो किससे? जब दूसरा है ही नही तो।
*इच्छा रहित* इच्छा तो मन में उठती है न, वह ही तो देखता है सभी इच्छाओं को।
*शान्त* ये गुण समझ में नहीं आया न ! इतनी उठा पटक चल रही है, भीतर भी बाहर भी । और शान्त?
एक घटना इसी संदर्भ में अपने जीवन का- कई साल पहले एक बार दशहरे का मेला देखने हम गए जब हम मेले के बाहर ही थे तो एक ऊंची जगह पर खड़े होकर हमने मेला देखने का निर्णय लिया फिर हमने देखा मेले के ऊपर पूरा एक धूल का गुबार छाया हुआ था और मेले में इतनी भीड़ थी कि लोगों का चलना मुश्किल हो रहा था जब हम बाहर से देख रहे थे तब तो यह सब चीजें दिखाई दे रही थी लेकिन जब हम उस मेले में घुसे उसके बाद उस भीड़ के धक्का-मुक्की में उससे बचने के लिए इतना प्रयास करना पड़ा की सब कुछ भूल गया और मन इतना ब्याकुल हो गया कितनी जल्दी से जल्दी यहां से निकल लो।
अर्थात जब आप साक्षी भाव में हो तो शांत ही हो,
*भ्रम से* ये है असली मुद्दा
इसे समझें--ढेर सारे विद्यार्थियों में आपका अपना बच्चा पहचानना आपके लिए मुश्किल होगा यदि सभी बच्चे एक ही ड्रेस में हों और आप उनके पीछे खड़े हों।
शोर में,आप अपने परिचित की आवाज पहचान नही पाते।
बस! यहां इंद्रियों की भीड़ और विषयों की बहुलता में स्वयं को देख न पाने के कारण भ्रम से बन्धन ग्रस्त अनुभव होता है।
[9/8, 9:26 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता अध्याय प्रथम श्लोक १३
*कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय:*।
*आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम *।।
अष्टावक्र जी कहते हैं-तुम अपने स्थिर अचल बोध स्वरूप, आत्मा का ही विचार करो।
*मैं जीव हूं* इस झूठी मान्यता से बाहर निकलो।
नारायण!
भारतीय अध्यात्म में शुरुआत बिल्कुल शून्य से होती है।जब हम बिल्कुल शरीर के स्तर पर जी रहे होते हैं, बस शरीर को ही *सबकुछ* माने हुए आसुरी वृत्तियों में (अपने शरीर के सुख के लिए ही विश्व का उपयोग करने का भाव)जीने वाले लोगों को शास्त्र शरीर से उपर उठाते हुए कहते हैं, कि तुम शरीर नहीं जीवात्मा हो।
तुम्हारा पुनर्जन्म होता है।
तुम अपने द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगते हो।
इस प्रकार के उपदेश देकर उसे कर्म और कर्म फल, स्वर्ग नरक का भय, दिखा कर शरीर के भोगों से उपर उठाते हैं।
फिर उसे शुभ कर्मो का लाभ बताकर शुभकर्मो में प्रवृत्त करते हैं।
जब शारीरिक वासनाएं क्षीण हो जाती है मन शांत रहता है तब उसे फिर वेदांत का तत्व निरूपण करते हुए , पहले दिए गए उपदेश* कि तुम शरीर नहीं जीव हो* का भी बाध कर, उसे तत्व बोध का उपदेश दिया जाता है।
वही अष्टावक्र जी योग्य शिष्य जनक को पाकर कहते हैं,*मैं जीव हूं* यह झूठी मान्यता है।इसे त्याग कर तुम स्थिर अचल बोध भाव में स्थित हो।
आत्मा सर्वव्यापक है, वैसे ही जैसे आकाश,
थोड़ा समझें इसे-
एक विमान जब भारत से उड़कर जापान जाता है तो क्या वह अपने साथ विमान के अंदर के आकाश को भी ले जाता है। नहीं न!
वैसे ही इस शरीर के स्थानांतरण से आत्मा का स्थानांतरण नही होता।
आत्मा सर्वव्यापक है। आप जहां भी जाएं, वहां पहले से ही किसी न किसी रूप में चैतन्य की उपस्थिति मिलेगी ही।
यह शरीर इस पृथ्वी के वायुमंडल के अनुकूल बनी है, क्योंकि इसे यहीं रहना है। आप देखें, जलचर प्राणियों के शरीर जल में रहने लायक है।
उड़ने वाले पक्षियों के शरीर उसी योग्य हैं।
भले ही आज हमें पता नही है, लेकिन ये सत्य है कि ऐसे भी शरीर हैं जिनका जीवन अग्नि में ही चल रहा है।
हो सकता है कल हमें पता चले कि जिन ग्रहों पर हम जीवन की कल्पना भी नही कर सकते आज।उनपर भी जीवन है वहीं के वायुमंडल के अनुसार।
बाकी चेतना, सर्वत्र है।
वही तुम हो।
नमोनारायण
[9/9, 10:08 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता अध्याय प्रथम श्लोक १४
*देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक।*
* बोधोऽहं ज्ञानखंगेन तन्निष्कृत्य सुखी भव।।*
***
हे पुत्र! बहुत काल से देहाभिमान के पाश से बंधा हुआ है।उस बंधन को *मैं बोध हूं* इस ज्ञान के तलवार से काटकर सुखी हो।
नमोनारायण
सभी चेतन प्राणियों को मैं हूं का प्रथम अनुभव शरीर को लेकर ही होता है। और जीवन पर्यन्त यही आभास सतत होता है कि मैं हूं। भले ही वो हाथी जैसा विशालकाय हो या सुक्ष्म प्राणी। इसी प्रसंग को लेकर अष्टावक्र जी कहते हैं कि तुम *मैं शरीर हूं* इस भाव में आबद्ध हो, शरीर के ही भोग पदार्थ के संग्रह और भोग में पूरा जीवन बीतता जा रहा है।
आइए थोड़ा देखें क्या इस शरीर से पृथक भी कोई अनुभूति है?
जब आप नींद से होकर स्वप्न देखते हो तब आपका यह शरीर अचल अवस्था में बिस्तर पर पड़ा होता है। लेकिन उस स्वप्नावस्था में भी आप लगभग सभी भोगों को ,सुख और दुख को भोग रहे होते हैं।
उससे आगे जब आप सुसुप्ति में जातें हैं तो इस शरीर का, और स्वप्न के शरीर का दोनों का अभाव रहता है, फिर भी जगने पर आप यह कहते हैं कि आज बड़ी अच्छी नीद आईं। मतलब *आप* जाग्रत स्वप्न और सुसुप्ति तीनों अवस्थाओं के ज्ञाता हैं।
यही बोध रुपी तलवार है जिसका जिक्र अष्टावक्र जी करते हैं।
*यह शरीर आपकी पहचान नहीं, आप से ये शरीर पहचाना जाता है*।
[9/10, 10:25 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता अध्याय प्रथम श्लोक१५
*नि:संगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजन:*।
*अयमेव हि ते बंन्ध: समाधिमनुतिष्ठसि*।।
बड़ी अद्भुत,लेकिन सत्य कह रहे हैं अष्टावक्र जी- बिना किसी लाग-लपेट के ।*विशुद्ध बोध पर ऐसे वक्तव्य बहुत कम ही मिलते हैं*
कहते हैं -तुम *असंग**क्रिया रहित**स्वयं प्रकाश** निर्दोष*हो।
तुम्हारा बंधन यही है कि तुम *स्वयं के प्राप्ति के लिए समाधि का अनुष्ठान करते हो*।
नारायण! औषधि रोग निवारण के लिए है,न कि स्वास्थ्य के लिए। एक पूर्णतया स्वस्थ्य ब्यक्ति औषधि क्यों ले?
वही बात कह रहे हैं अष्टावक्र जी।
वो कहते हैं तुम भ्रमित हो रोग भावना से और जो प्रयास है तुम्हारा रोग निवृति के लिए यही बन्धन है।
कोई भी क्रिया तुमको बंधन मुक्त नहीं कर सकती। वह क्रिया ही बंधन का कारण बन जाएगी।
*,इस शरीर सहित पूरे विश्व प्रपंच का साक्षी चैतन्य जो है उसे पाने के लिए भला कौन सी साधना सहायक हो सकती है*?
ये शरीर जो भी कर रहा है, ये मन बुद्धि जो भी देख और निर्णय कर रहे हैं उन सबके साक्षी को भला कौन से विधि से पाया जा सकता है?
*स्वप्रकाश है तूं* अर्थात ! स्वयं को स्वयं ही प्रकाशित करे।
*सभी साधनाऐं, सभी अनुष्ठान, सभी क्रियाएं, जिसके चैतन्य प्रकाश में ही। संपन्न हो रही हैं।वह तुम स्वयं हो*।
फिर समाधि भी किसके लिए? संन्यास भी किसके लिए?
नारायण! एक बात कहूं- इस श्लोक का भावार्थ अन्तिम सत्य है।
बहुत ही कम लोग , शायद करोड़ों, अरबों में एकाध ही इस उच्च अवस्था तक पहुंच पाते हैं।
नारायण ! लेकिन *असंभव नहीं है*
बस इतना ही कह सकूंगा।
नमोनारायण
[9/11, 9:18 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता अध्याय प्रथम श्लोक १६
*त्वया ब्याप्तमिदं विश्व त्वयि प्रोक्तं यथार्थत:*।
*शुद्ध बुद्धस्वरूपस्वत्वं मा गम: क्षुद्रचित्ताम्*।।
******
यह संसार तुझमें ब्याप्त है। तुझी में पिरोया है। यथार्थ में तू चैतन्य रूप है, अतः *क्षुद्र चित्त*को मत प्राप्त हो।
नमोनारायण!
ये क्षुद्र चित्तता क्या है नारायण?
क्षुद्र चित्त मतलब, अपने को लघुता में जकड़ लेना। अपने को जीव भाव से जकड़ लेना। अपने को शरीर भाव में जकड़ लेना।
*आत्मा को भिन्न भिन्न मानना अज्ञान है, लेकिन अपने को शरीर मानना महा अज्ञान है*
हम तो इससे भी दो कदम आगे बढ़ कर कहेंगे कि *स्वयं को शरीर मानना महा अपराध है*
सभी पापों की जननी है यह।
संसार तुझमें ब्याप्त है-मतलब समझिए
आपके पिता जी, आपके माता जी, आपकी पत्नी, बेटे,बहू, और तमाम संबंध, आपकी चल अचल संपत्ति, आपकी सामाजिक प्रतिष्ठाएं, आपकी डिग्रियां ये सब आपके भीतर हीं हैं।आपका देश,आपका धर्म, आपके कर्तव्य, आपके अधिकार,आपका वर्ण,आपकी जाति,आपका गोत्र ये सब आपके भीतर हीं हैं। ये संसार आपमें ही ब्याप्त है। कभी ब्रह्मचारी,कभी गृहस्थ, कभी संन्यासी, कभी वानप्रस्थी, ये सब आपके भीतर हीं हैं।* यही तो संसार है*
*†***
हे नारायण आप *शुद्ध, बुद्ध स्वरूप* हो
शुद्ध मतलब- उपरोक्त कहे गए सभी भावों से पृथक (बुद्ध) बोध स्वरूप, चैतन्य हो।
शेर का शावक जब खुद को भेड़ मान ले, तो जंगली मांसभक्षी जानवरों का भय तो बना ही रहेगा न।
लेकिन जैसे ही स्वयं का बोध शेर के रूप में हुआ, वैसे ही सभी भय समाप्त हो गये।
नमोनारायण नमोनारायण
[9/12, 8:28 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता अध्याय प्रथम श्लोक १७
*निरपेक्षो निर्विकारो निर्भर: शीतलाशय:*।
*अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन:*।।
*******
तुम निर्पेक्ष (अपेक्षा रहित) हो, निर्विकार हो, स्वनिर्भर हो, शांति और मुक्ति के स्थान हो,अगाध बुद्धि रुप हो,क्षोभ रहित हो, अतः अपने चैतन्य स्वरूप में निष्ठा रखो।
नमोनारायण !
घुमा फिराकर चंद बातों की पुनरावृत्ति ही है।
दरअसल है क्या कि-जब सब कुछ कहा जा चुका हो, और फिर सामने वाले को विश्वास दिलाने के लिए बार बार कहना पड़े तो पुनरावृत्ति तो होगी ही।
फिर भी कुछ नये शब्द हैं आइए देखते हैं-
*निरपेक्ष* अपेक्षा रहित
अपेक्षा होती किससे है? किसके लिए है?
तो नारायण! अपेक्षा हमेशा *अन्य से अन्य के लिए ही होती है*
यहां जब अन्य है ही नहीं तो अपेक्षा भी नहीं है।
*अन्य* यदि शरीर के स्तर से देखेंगे तो अन्य हैं, लेकिन आत्मा के स्तर पर, चैतन्य के स्तर पर,बोध के स्तर पर, अन्य नहीं है *एकोहं द्वितीयो नास्ति*
तो- चूंकि एक ही है फिर अपेक्षा किससे और किसके लिए?
*निर्विकार* ये जरा कठिन है समझना जबकि है सोलह आने सच।विकार को समझें पहले ---मेरे सोचे से विकार का अर्थ *परिवर्तन* से है एक ही क्रिया *बनाती भी है और बिगाड़ती भी है*
सब्जी बनाने के लिए जब आलू काटा जाता है तो एक तरफ सब्जी बनती है तो दूसरी तरफ आलू नष्ट हो जाता है। अर्थात आलू का विकार है आलू की सब्जी।
वैसे ही बचपन नष्ट हो कर ही यौवन आता है।
यहां कहा--निर्विकार: अर्थात तुम निर्विकार हो।
नारायण विकार (परिवर्तन) वस्तु स्थिति स्थान ,काल अवस्था आदि में होता है।
लेकिन जो सभी वस्तु, स्थिति, स्थान,काल, अवस्था, आदि का साक्षी है वह अपरिवर्तनीय है। यही निर्विकारता है।
*स्वनिर्भर*जब एक ही है तो स्वाभाविक रूप से वो स्वनिर्भर ही होगा।
*क्षोभ शून्य* क्षोभ भी दूसरों पर ही होता है,तब जब हमारे अपेक्षा के विपरित परिणाम आते हैं।
यहां दूसरा है नही, और अपनी अपेक्षा भी नहीं है तो क्षोभ होगा ही नहीं।
अतः चैतन्य में निष्ठा कर।
निष्ठा एक ऐसा भाव है नारायण! कि बस पूछो मत।
*मैं ब्राह्मण हूं बस*! बन गई निष्ठा तो सभी ब्राह्मण के कर्म होने लगेंगे।
*मैं संन्यासी हूं* बस। संन्यासी में निष्ठा हुई, और संसार त्यक्त हो गया, परिवार त्यक्त हो गया,
संन्यासी होने से, ब्राह्मण होने से, गृहस्थ होने से, कुछ बदलता नहीं है नारायण!
बस बदलतीं है हमारी निष्ठाएं।
वही अष्टावक्र जी कहते हैं- *तूं चैतन्य में,बोध में, साक्षी भाव में, ज्ञान स्वरूप में, निष्ठा कर* निष्ठा वाला हो।
*******
नमोनारायण नमोनारायण नमोनारायण
[9/13, 10:48 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता अध्याय प्रथम श्लोक १८
*साकारंमनृतं विद्धि निराकारण तु निश्चलम्*।
*एतत् तत्वोपदेशेन न पुनर्संम्भव:*।।
******
साकार को मिथ्या जान, निराकार को स्थिर जान।
इस तत्व के उपदेश से संसार में पुनः: उत्पत्ति नहीं होती।
बड़ी अद्भुत बात कही है इस श्लोक में अष्टावक्र जी ने,*साकार को मिथ्या जानने और निराकार को निष्चल जान लेने से पुनर्जन्म नहीं होगा*
साकार , अर्थात जो भी दृश्य वर्ग जिनका है वो मिथ्या है, अर्थात स्थायी नहीं है, क्षणभंगुर है। क्षणिक है। निरंतर परिवर्तनशील है।
नारायण! आज़ तो विज्ञान के सहायता से पदार्थ के सूक्ष्मविघटन को भी सरलता से देखा जा सकता है।
एक सत्य जो हम सब प्रतिदिन देखते हैं कि * सब-कुछ बदल तो रहा है* एक बीज का वृक्ष बनना, एक कली का पुष्प बनना, एक शिशु का बालक, युवा वृद्ध होना, जल का वाष्पीकरण, होकर वर्षा होना *सतत परिवर्तन ही शायद सृष्टि है*
दृश्य जगत में स्थिरता नहीं है। जहां स्थिरता दिखती है वहां केवल परिवर्तन की मंदता ही हेतु है।
आज का जन्मा शिशु दो चार सालों में बालक बन जाता है।
तो- श्लोक का अभिप्राय है कि-जो इस अस्थिरता को जान लेता है,वह *किसी भी रुप में आशक्त नहीं होता*
किसी भी संबंध में आशक्त नहीं होता।
किसी भी मनोभाव में आबद्ध नहीं होता।
आप देखें जरा जीवन के पिछले दिनों को, कब मित्र शत्रु बन गये? कब संबंधों में कटुता आ गई? कब शत्रु भी मित्रवत हो गया,कब संबंध बिगड़े बनें, आज वो घटनाएं बमुश्किल याद आती हैं, जिन्होंने कभी जीना हराम कर रखा था।
*****
इन सबके बीच एक चीज निरंतर एक जैसी बनी रही वो है आपका ज्ञान,बोध, आपका जानना पना।
* इस बदलने वाले संसार को जिसने देखा वो अबदल रहा।
एक छोटे से बालक का* मैं* और वही बालक जब वृद्ध हो जाता है उसका *मैं* परिवर्तित नहीं होता।वह वृद्ध ब्यक्ति यही कहेगा कि मैं बचपन में ऐसा था।
अर्थात शरीर बालक से बूढ़ा हो गया लेकिन मैं वही का वही।
*यही कहना चाह रहे हैं, अष्टावक्र जी-
*साकार का मोह, लालसा, उसे पाने, रखने और भोगने की इच्छा, यही तो पुनर्जन्म के कारण हैं*।
साकार मिथ्या है- इसको जानने वाला निराकार साक्षी स्थिर अचल शाश्वत सत्य है।
यही पुनर्जन्म से मुक्त होने का उपाय है।
[9/14, 9:25 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता अध्याय प्रथम श्लोक १९
*यथैवादर्शमध्यस्थे रुपेऽन्त: परितस्तु से:*।
*तथैवास्मिन् शरीरेऽन्त: प्रिय: परमेश्वर:*।।
*****
जिस तरह दर्पण, अपने में प्रतिबिंबित रुप के भीतर भी और बाहर भी स्थित है।उसी तरह परमात्मा भी इस शरीर के भीतर और बाहर स्थित है।
आज के श्लोक में एक नया उदाहरण देकर समझाने का प्रयत्न किया है, अष्टावक्र जी ने।
दर्पण, मतलब आईना,शीशा की तरह आत्मा को बताते हुए कहते हैं कि, दर्पण में देखा जा रहा मनुष्य वही है जो दर्पण के सामने खड़ा है।
अर्थात - तुम वही हो जिसको आत्मा, चैतन्य, साक्षी,बोध, ब्रह्म आदि अनेक नामों से कहा गया है। दर्पण के भीतर और दर्पण के बाहर एक ही तत्व है । वैसे ही जो दर्पण में दिख रहा है वही दर्पण के सामने भी है।
अर्थात- ये भीतर बाहर जैसा कुछ भी नहीं है। सर्वत्र एक ही है *शरीर में आत्मा रुप में और सृष्टि में परमात्म रूप में, वही चैतन्य ब्याप्त है*।
जैसे- स्वर्ण के बने कंगन में स्वर्ण कंगन के भीतर भी है और बाहर भी।
कहा जा सकता है कि- *कंगन का रुप स्वर्ण में दिखता तो है लेकिन है स्वर्ण ही स्वर्ण*।
जैसे- मिट्टी से बने सुराही में मिट्टी सुराही में भी है ।
कहा जा सकता है कि-*सुराही का रुप मिट्टी में दिखता तो है, लेकिन है मिट्टी ही मिट्टी*।
ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं
एक बात ध्यान देने योग्य है कि *स्वर्ण का उपयोग आभूषणों से ही है*
मिट्टी का उपयोग सुराही ,मटका, कुल्हड़,ईट, आदि होकर ही है। वैसे ही चैतन्य, साक्षी का उपयोग भी साकार होकर ही है।
लेकिन- *जैसे कंगन कल्पना है, स्वर्ण में* *सुराही कल्पना है मिट्टी में* वैसे ही यह *विश्व कल्पित है चेतना में*
यह शरीर कल्पना है ज्ञान में।
********
नारायण! जैसे स्वर्ण, में आभूषण
मिट्टी में सुराही और शीशे में बोतलों का उपयोग भिन्न भिन्न रूपों में होते हुए भी, मूलतः *आभूषण स्वर्ण ही हैं*
मूलतः * सुराही मिट्टी ही है*
मूलतः * बोतल शीशा ही है*
वैसे ही नारायण!
*यह विश्व प्रपंच दिखता हुआ और उपयोग में आता हुआ भी ब्रह्म ही है, चैतन्य ही है,बोध ही है*।
आज के इस श्लोक में अष्टावक्र जी ने साकार और निराकार के गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया है।
यदि आपके समझ में आ जाय तो,इस *अकिंचन*का श्रम भी सफल हो जाय।
नमोनारायण नमोनारायण नमोनारायण
[9/15, 10:37 PM] JAy Narayan Goswami: अष्टावक्र गीता अध्याय प्रथम श्लोक २०
*एकं सर्वगतं ब्योम बहिरन्तर यथा घटे*।
*नित्यं निरंतरं ब्रह्म सर्वभूतगणो तथा*।।
जैसे सर्वब्यापी आकाश सुराही के भीतर भी है और बाहर भी। वैसे ही नित्य निरंतर सभी भूतो के भीतर भी और बाहर भी ब्रह्म स्थित है।
********
आकाश के ब्यापकता का उदाहरण दे रहे हैं अष्टावक्र जी! ब्रह्म की ब्यापकता को समझाने के लिए।
*आकाश* का अर्थ रिक्तता ही समझा जाता है सामान्य तया। लेकिन क्या सचमुच है ऐसा? नहीं वैसे हम आप जिस आकाश में रहते हैं, वह एक रिक्त स्थान है? आप कह सकते हैं कि हां, लेकिन नारायण!
जिसे आप रिक्त, आकाश, शून्य कह रहे हैं वहां तो ढेरों हवा का दबाव है वैज्ञानिक भाषा में पृथ्वी के वायुमंडल में क ई सारी गैस हैं। जिनमें जीवन चल रहा है।जल है वाष्पीकृत रुप में।
*इतना सब होते हुए भी हमें आकाश रिक्त ही दीखता है। वैसे ही जलचर प्राणियों को जल में रहते हुए भी जल नही दीखता रिक्तता ही दीखती है।
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अष्टावक्र जी ने कहा- घट के अंदर बाहर आकाश है,मै कहूं तो *घट के अंदर बाहर सर्वत्र वायु ,जल ,धूल, भरा हुआ है*। लेकिन *दीखता आकाश है *
जैसे मछली को अपने चारों ओर ब्याप्त जल नही दीखता, आकाश ही दीखता है। केंचुए को कही पृथ्वी नहीं मिलती ।
बैगन के भीतर पड़े हुए कीड़े को बैंगन आकाश वत ही दीखता है।
वैसे ही *ब्रह्म हमारे भीतर और बाहर भी ब्याप्त है*
फिर दीखता क्यों नहीं नारायण?
वायु ही कहां दीखती है?
आक्सीजन कहां दीखता है? कार्बन डाइऑक्साइड , नाईट्रोजन, हाईड्रोजन, आदि कहां दीखते हैं?
लेकिन हैं तो सही।
बस नारायण ! इसी तरह जन्म मृत्यु और जीवन की सारी प्रक्रिया ब्रह्म के भीतर ही स्वप्न वत अनुभव होता है।
वैसे ही जैसे- सुराही उत्पन्न हुआ आकाश में, उसके भीतर आकाश है तभी उसमें जल भर सकेंगे, और सुराही है कहां? आकाश में।
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आज अष्टावक्र गीता का अध्याय प्रथम पूर्ण हुआ। आज इक्कीस दिनों तक बीस श्लोकों के माध्यम से ,जनक जी के पूछे तीन प्रश्नों के उत्तर दिए अष्टावक्र जी ने।
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जिज्ञासुओं! आज चिंतन अवश्य कीजियेगा की आप कितना सफल हो पाये हैं,इन श्लोकों को समझने में?
क्यों कि *आपकी सफलता ही हमारे समझा पाने की कसौटी है*
यदि समझने में कमी हो तो नारायण बार बार पुनुरावृत्ति करें। अनुभव को जीवन में उतरने दें।
*ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते *।
*पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते *॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः