भारतीय पत्रकारिता अपने निकृष्ट सोच एवं पतन के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। विकास दुबे के मैटर को ही देख लीजिए।
पिछले शुक्रवार को विकास दुबे ने आठ पुलिस वालों को मार डाला था। उसके पहले किसी पत्रकार ने कभी बताया कि विकास दुबे नाम का कोई गैंगस्टर है जिस पर 60 मामले दर्ज हैं?? कभी एक लाइन भी लिखा था?
अचानक सब लोग योगी को एक फेल्ड सी एम कहने लगे। कुछ लोग तो कहने लगे कि विकास दुबे को छूट दी गई है
फिर दूसरे दिन जब उसके घर को तोड़ा जाने लगा तो यही पत्रकार बोलने लगे कि ये तो जुल्म है । विकास को भगाकर खानापूरी की जा रही है ।
फिर कल विकास दुबे पकड़ा गया उज्जैन में।
अब पत्रकार बोलने लगे कि उज्जैन तक पहुंचा कैसे ?
उसे सरेंडर कराया गया है ताकि उसकी जान बचाई जाए ।
आज जब एनकाउंटर की खबर आई तो पत्रकार उबल पड़े...जान बूझकर मारा गया है ताकि राज़ छुपाए जांए
मतलब ये अपने स्टूडियो में, अपने ओफिस में बैठ कर इसी तरह की बकैती करते रहें और हम इन्हें पत्रकार मान लें?
तुम तो पत्तलकार हो । विकास दुबे ने न जाने तुम जैसे कितनों को पाल पोस कर बड़ा किया होगा।हो सकता है कि एक दो अखबार भी,एकाध न्यूज़ चैनल भी उसके पैसों से चलते हों?
खोजी पत्रकारिता का मतलब न्यूज पढ़कर उछलना नहीं बल्कि न्यूज के पीछे की खबर बताना है
तुम जो वेब पोर्टल और सोशल मीडिया पर न्यूज की समीक्षा के नाम पर भंड़ास निकालते हो
उससे हजार गुना बेहतर टिप्पणियां फेसबुक पर साधारण नागरिक भी कर लेता है ।
यही हाल रहा तो तुम्हारा भी वही हस्र होगा जो पुण्य प्रसून बाजपेई अभिसार शर्मा विनोद दुआ और आशुतोष का हुआ है।
कैमरे के सामने माइक पर बोलने के लिए तरस जाओगे