त्वन्मूर्तिभक्तान् स्वगुरुं च चक्षुः।
पश्यत्वजस्रं स शृणोतु कर्णः ।।
त्वज्जन्मकर्माणि च पादयुग्मं
व्रजत्वजस्रं तव मन्दिराणि ॥ ९२॥
अङ्गानि ते पादरजोविमिश्र।
तीर्थानि बिभ्रत्वहिशत्रुकेतो ।
शिरस्त्वदीयं भवपद्मजाद्यै-
र्जुष्टं पदं राम नमत्वजस्रम् ॥ ९३।।
हे प्रभु ! संसारके सभी बन्धन मायामय है और जो माया है यह आपकी दासी है इस मायासे हमको दूर कीजिये।
हे रघुनाथ! मेरी चित्तवृत्ति सदैव आपके चरणकमलों में लगी रहे।मेरी वाणी आपके नाम संकीर्तन और आपकी कथा में लगी रहे।मेरे हाथ आपके दिव्य भक्तों की सेवामें लगे रहें और मेरा शरीर आपकी चरणों की सेवासे सदैव आपका संग करता रहे।मेरे नेत्र सर्वदा आपकी मूर्ति ,आपके परम् भक्त और अपने गुरुका दर्शन करते रहें।मेरे कान नित्यनिरन्तर आपके परमदिव्य अवतारोंकी लीलाओंका श्रवण करते रहें और मेरे पैर सदा आपके मन्दिरों की यात्रा करते रहें।
हे रघुनंदन!मेरा शरीर आपकी चरणरज से युक्त तीर्थोदक को धारण करे और मेरा शिर निरन्तर आपके उन चरणों में प्रणाम किया करे जिन चरणों की सेवा विधाता आदि देवगण सदैव किया करते हैं।