Raj Singh's Album: Wall Photos

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प्रेमी योद्धा
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प्रेमी और योद्धा के किरदार को एक ही चोले में निभा पाना बड़ी दुर्लभ व्याप्ति है!

किंतु ईश्वर की कौतूहलपूर्ण निर्मित है कि वो प्रत्येक स्थिति के लिए एक न एक उदाहरण का निर्माण अवश्य करता है, साथ ही, उस उदाहरण की कहानी भी लिखता है। नि:संदेह, इस कहानी को ईश्वर ने माहे-ए-फ़रवरी में लिखा होगा, जहां बसंत की राहत, फाल्गुन की आहट और प्रेम के पदचापों की खरखराहट।

यों अक़्सर ही देखा पढ़ा सुना है कि नेशनल हीरोज़ की प्रेम कहानियां अधूरी रह जाती हैं। वे मातृभूमि की रक्षा में सर्वस्व निछावर कर देते हैं, बहुधा स्वयं को भी! जबकि वे जानते हैं कि वे स्वयं भी किसी का “सर्वस्व” हैं, मोतियाबिंद के ऑपरेशन की तारीखों को टालने वाली दो मजबूर आँखों के तारे हैं।

आज की कहानी है, एक “पीवीसी अलाइव सोल्ज़र” यानी कि स्वयं जीवित अवस्था में सर्वोच्च सम्मान “परमवीर चक्र” प्राप्त करने वाला योद्धा। उनका नाम “रामा राघोबा राणे” था!

उन्नीस सौ अठारह में जन्मे “राणे” की सैन्य पारी सन् चालीस में शुरू हुई। अंग्रेजों की सेना में भर्ती होकर, वे बर्मा पहुँच गये। ये कोर उनदिनों की “बॉम्बे सैपर्स” और आज की “इंजीनियर्स कोर” है। हाथ में मीडियम मशीन गन आने से पूर्व “कमांडेंट कैन” आ गयी, उनदिनों ट्रेनिंग के दौरान “बेस्ट कैडेट” को मिलने वाला सम्मान।

और जब मशीन गन उठाई तो मात्र उसकी सहायता से जापान के एक महत्त्वपूर्ण विमान को अकेले ही मार गिराया!

ख़ैर, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत को आजादी मिली। अब “राणे” भारतीय थल सेना में “सेकण्ड लेफ्टिनेंट” बनाए गए! आजादी की बयार ने देश में काफ़ी कुछ बदला था। जो चीज़ें नहीं बदलीं, उनमें से एक इंडियन मिलिट्री भी थी।

थलसेना के कमोबेश क़ायदे आज भी वही हैं!

बहरहाल, आज़ाद भारत की अंतरिम सरकार को थलसेना की जरूरत इतनी जल्दी पड़ जाएगी, ये अंदेशा किसी को न था। पाकिस्तान ने भारत द्वारा सिर पर तिरपाल बनाने को मिले सहायतार्थ धन से हथियारों का बंदोबस्त किया। और भारत पर ही आक्रमण कर दिया।

उनकी योजना कुछ यूं थी कि “कश्मीर” पर दो तरफ़ा आक्रमण किया जाए। पहला आक्रमण “श्रीनगर” की ओर हुआ। इससे पहले पूरी सेना का रुख़ उस तरफ़ होता कि “अखनूर” और “नौशेरा” सहित पूरा “जम्मू” भी चपेट में आ गया।

जब इस तरह की हरकतें हुईं, तब मालूम हुआ कि पाकिस्तानी सेना “राजौरी” से ऑपरेट कर रही है। ये एक छोटा सा गांव है, जो श्रीनगर और जम्मू, दोनों से ही सौ अधिक किमी दूर है।

अब भारतीय सेना की योजना थी कि सबसे पहले “राजौरी” को कब्जे में लिया जाए। जड़ को काट फेंका तो पेड़ ख़ुद-ब-ख़ुद गिर जाएगा!

पाकिस्तानी हुक्मरान जानते थे कि यही योजना भारतीय सेना को बनानी होगी। इसे काटने का प्रबंध उन्होंने पहले ही कर दिया था। “राजौरी” तक जाने वाले सभी राष्ट्रीय राजमार्ग और सामान्य मार्ग अवरुद्ध कर दिए गए थे।

बाधाएँ इतनी ज़्यादा थीं कि टैंक और बख़्तरबंद गाड़ियों का जाना नामुमकिन था। यानी कि उनदिनों भारत का ऐसा भी क्षेत्र था, जहाँ आर्मर्ड और आर्टिलरी कोर का कोई दखल नहीं!

सेना ने उन मार्गों से पत्थर हटाने का प्रयास किया। सेना के बुलडोजर आए। उनदिनों की तकनीक कुछ यूं थी कि एक विशालकाय टैंक से अधिक आवाज़ तो बुलडोजर ही कर रहा था। इन्हीं आवाज़ों का इंतज़ार झाड़ियों में छिपे पाकिस्तानियों को था।

बुलडोज़र की इस बुलंद आवाज़ की आड़ लेकर उन्होंने चार सैनिकों के प्राण ले लिए। अतः बुलडोजर बंद कराने पड़े! किन्तु सेना ने हिम्मत नहीं हारी। जंगलों से रास्ता बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। ये कार्य सेना के “इंजीनियर्स कोर” का होता है।

कुछ टैंक और अपने शेष बत्तीस साथियों को लेकर “रामा राघोबा राणे” उन जंगलों में मार्ग चिन्हित करने के लिए चल दिए। ये कार्य पूर्ण होने के बाद समग्र भारतीय सेना को उनके बनाए मार्ग का अनुसरण करना था।

ये तरीका भी पाकिस्तानी सेना को पूर्व में ज्ञात था!

ज्यों ही टैंक जंगल की ओर बढ़ा, माइन का धमका हुआ और विस्फोट से पूरा प्लाटून हिल गया। आगे बढ़ना मुश्किल था। पूरा जंगल माइंस की जद में था। पैरों पर खड़े रहना भी सुरक्षित न था। हर दिशा मे पाकिस्तानी मोर्टार थे। उनदिनों मोर्टार्स में लोहे की किरचनें भरी जाती थीं।

“राणे” खड़े खड़े विचार कर ही रहे थे कि एक बार वे अपने प्लाटून के साथ "राजौरी" के निकट पहुँचते तो शेष पूरी सेना उनके द्वारा बनाए गए पदचिन्हों का प्रयोग कर "राजौरी" पहुँच जाती, इतने में एक मोर्टार फायर हुआ और कुछ किरचनें उनके घुटनों के बीच से निकल गईं।

अवरुद्ध मार्ग और गहरे घाव के बीच, सेना मुख्यालय से उन्हें वापस जाने का विकल्प मिला। मग़र उन्हें अपने कुलपूर्वज वीर शिवाजी के कोंकणी मराठा शौर्य की सुधि हो आई। वापसी उन्हें गवारा न थी। उन्होंने ऐसा मार्ग ईज़ाद किया, जहाँ तक पाकिस्तानी सोच की कोई वैचारिक पहुँच नहीं थी।

वो ऐतिहासिक तरीका कुछ यूं है :

1) सभी टैंक ऐरो फार्मेशन में चलेंगे, यानी कि एक सीधी रेखा में।
2) सबसे आगे वाले टैंक के ड्राइविंग बॉक्स से एक रस्सी जुड़ी होगी, जो टैंक से बाहर आगे की ओर लटकी होगी।
3) उस टैंक के नीचे, दोनों पहियों के मध्य "राणे" क्रोलिंग करेंगे। यानी कि पेट के बल, कोहनियों और घुटनों के सहारे रेंगना।
4) जब जब कोई माइन होगी, वे रस्सी को दाईं ओर खींचेंगे, टैंक रुकेगा, अब वे कीचड भरी मिट्टी में हाथ डालकर माइन का बटन ऑफ़ करेंगे।
5) और आखिरी में वे रस्सी को बाईं ओर खींचेंगे तो टैंक आगे बढ़ेगा।

“राणे” अपने युद्ध-संस्मरणों में बताते थे कि जब मैं कीचड में उँगलियाँ डाल कर ब्लाइंडली माइन को डिफ्यूज़ करता था, तो पल भर के लिए मेरी आँखें बंद हो जाती थीं!

आठ अप्रैल सुबह छः बजे शुरू हुआ ऑपरेशन, अंततः बारह अप्रैल शाम छः बजे सफल हुआ। सिर्फ शक्करपारे खाते हुए “राणे” और उनके बत्तीस साथियों ने “राजौरी” तक भारतीय टैंक पहुँचने हेतु एक लकीर खींच दी थी।

और एक रोज़ भारत ने ये युद्ध जीत लिया! चूँकि “राजौरी” बेस से रसद और आपूर्ति बंद हो जाने के कारण पाकिस्तानी सेना “जम्मू” और “श्रीनगर” की सीमाओं पर हो रहे सीधे युद्ध में टिक न सकी।

इस विजय का बहुत बड़ा श्रेय श्री “रामा राघोबा राणे” को मिला। कहा गया कि यदि वे न होते, तो ये युद्ध बरसों चलता! उन्हें इस असाधारण योजना और पराक्रम के लिए परमवीर चक्र दिया गया। ये बैज उनके कंधे पर तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने लगाया।

उनदिनों “राणे” तीस बरस के थे, द मोस्ट एलिजिबल बैचलर इन कंट्री!

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उस लड़की का नाम "राजेश्वरी" नहीं था। उसका नाम तो "लीला" था, लीला!

नाम जितना ही कलात्मक उसका जीवन था। जब “राणे” ने उसे देखा तो वो गाना गा रही थी। एक गीत, जो कार्यक्रमों में अथितियों के आगमन पर गुनगुनाया जाता था।

ये शिवाजी हाईस्कूल, सदाशिवनगर, करवार (कर्नाटक) था। उनदिनों “राणे” छुट्टी में अपने घर आए हुए थे। उन्हें मुख्य अतिथि के तौर पर स्कूल से आमंत्रण मिला।

वहीं उनकी मुलाकात “लीला” से हुई। साड़ी पहने, “राणे” को देखते हुए पूरे दिल से स्वागत गीत गाती हुई लड़की। और सैंतीस वर्षीय "राणे" का दिल उन्नीस वर्षीय "लीला"पर आ गया!

किन्तु वे केवल एक प्रेमी न थे, बल्कि पूरा “डेकोरम” मेंटेन करने वाले फौजी भी थे। उन्होंने "लीला" से कुछ भी न कहा। उन्होंने अपनी छुट्टियां आगे कीं और सीधे "लीला" के घर पहुंचे।

आयु में इतना फ़र्क़ होने पर भी, परिवार को ऐसा दामाद मिलने का फ़ख़्र था। तीन फ़रवरी उन्नीस सौ पचपन को उन दोनों ने विवाह कर लिया।

जो पहली पङ्क्ति “राणे” ने अपनी प्रेमिका से कही वो थी : “क्या आपको राजेश्वरी नाम पसंद है?”

“लीला” ने कहा : “जी, ये तो बहुत अच्छा नाम है!”

“तो आज से आपका नाम राजेश्वरी राणे हुआ.”
“इस नाम से ख़ास लगाव की कोई वज़ह?”

तिस पर “राणे” बोले : “एक रोज़, मैं एक राजपरिवार में गया था। वहाँ की राजमाता देवी राजेश्वरी के व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उस रोज़ से लेकर तुम्हें देखने तक, मैं ईश्वर से मांगता था कि मुझे राजमाता के व्यक्तित्व के सामान पत्नी मिले। और आज तुम मेरे साथ हो, राजेश्वरी!”

इसके बाद एक निर्विकार ख़ामोशी छा गयी। आसमान में चाँद भी थका मांदा था और जमीं पर एक योद्धा भी तमाम युद्धों से ऊब गया था। चाँद ने बादल और योद्धा ने आँचल ओढ़ लिया। रात्रि युवा हो रही थी और अब शायद उसे चाँद की रौशनाइयों की जरूरत न थी।

इति।

✍️ Yogi Anurag

[ चित्र : प्रतीकात्मक। इंटरनेट से साभार। ]