अपनी तेजस्वी वाणी के जरिए पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति और अध्यात्म का डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद ने केवल वैज्ञानिक सोच तथा तर्क पर बल ही नहीं दिया, बल्कि धर्म को लोगों की सेवा और सामाजिक परिवर्तन से जोड़ दिया।
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था। 1884 में उनके पिता विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु के बाद अत्यंत गरीबी की मार ने उनके चित्त को कभी डिगने नहीं दिया। संगीत, साहित्य और दर्शन में विवेकानंद को विशेष रुचि थी। तैराकी, घुड़सवारी और कुश्ती उनका शौक था।
मानवता की दिव्यता के उपदेश का स्वाभाविक फल था निर्भयता और व्यावहारिक अंग्रेज जाति ने स्वामीजी के जीवन की कई घटनाओं में इस निर्भयता का प्रत्यक्ष उदाहरण देखा था।
एक घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। एक दिन एक अंग्रेज मित्र तथा कु. मूलर के साथ वे किसी मैदान में टहल रहे थे। उसी समय एक पागल सांड तेजी से उनकी ओर बढ़ने लगा। अंग्रेज सज्जन अपनी जान बचाने को जल्दी से भागकर पहाड़ी के दूसरी छोर पर जा खड़े हुए। कु. मूलर भी जितना हो सका दौड़ी और फिर घबराकर भूमि पर गिर पड़ीं। स्वामीजी ने यह सब देखा और उन्हें सहायता पहुंचाने का कोई और उपाय न देखकर वे सांड के सामने खड़े हो गए और सोचने लगे- 'चलो, अंत आ ही पहुंचा।
बाद में उन्होंने बताया था कि उस समय उनका मन हिसाब करने में लगा हुआ था कि सांड उन्हें कितनी दूर फेंकेगा। परंतु कुछ कदम बढ़ने के बाद ही वह ठहर गया और अचानक ही अपना सिर उठाकर पीछे हटने लगा। स्वामी जी को पशु के समक्ष छोड़कर अपने कायरतापूर्ण पलायन पर वे अंग्रेज बड़े लज्जित हुए। कु. मूलर ने पूछा कि वे ऐसी खतरनाक परिस्थिति से सामना करने का साहस कैसे जुटा सके। स्वामी जी ने पत्थर के दो टुकड़े उठाकर उन्हें आपस में टकराते हुए कहा कि खतरे और मृत्यु के समक्ष वे अपने को चकमक पत्थर के समान सबल महसूस करते हैं क्योंकि मैंने ईश्वर के चरण स्पर्श किए हैं।'
अपने बाल्यकाल में भी एक बार उन्होंने ऐसा ही साहस दिखाया था। इंग्लैंड के अपने कार्य तथा अनुभवों के विषय में उन्होंने हेल-बहनों को लिखा था कि यहां उनके कार्य को जबर्दस्त सफलता मिली है। एक अन्य अमेरिकी मित्र के नाम पत्र में उन्होंने लिखा कि अंग्रेजों के महान विचारों को आत्मसात करने की शक्ति में उन्हें विश्वास है, यद्यपि इसकी गति धीमी हो सकती है, परंतु यह अपेक्षाकृत अधिक सुनिश्चित एवं स्थायी होगी।
उन्हें उम्मीद थी कि एक ऐसा समय आएगी जब अंग्रेजी चर्च के प्रमुख पादरी वेदांत के आदर्शवाद से अनुप्राणित होकर एंग्लीकन चर्च के भीतर ही एक उदार समुदाय का गठन करेंगे और इस प्रकार सिद्धांत और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से धर्म की सार्वभौमिकता का समर्थन करेंगे।
परंतु इंग्लैंड में उन्हें सबसे अच्छा लगा था - अंग्रेजों का चरित्र, उनकी दृढ़ता, अध्यवसाय, स्वामीभक्ति, आदर्श के प्रति निष्ठा तथा हाथ में लिए हुए किसी कार्य को पूरा करने की उनकी लगन। वहां के लोगों के अंतरंग संपर्क में आने पर उनके बारे में स्वामी जी के पूर्वकल्पित विचार बिल्कुल ही बदल गए। परवर्ती काल में उन्होंने कलकत्ता के नागरिकों को संबोधित करते हुए कहा था - 'ब्रिटिश भूमि पर अंग्रेजों के प्रति मुझसे अधिक घृणा का भाव लेकर कभी किसी ने पैर न रखा होगा।'
अब यहां ऐसा कोई भी न होगा जो मुझसे ज्यादा अंगरेजों को प्यार करता हो।'
28 नवंबर 1896 ई. को उन्होंने हेल-बहनों को लिखा - 'अंगरेज लोग अमेरिकनों की तरह उतने अधिक सजीव नहीं हैं, किंतु यदि कोई एक बार उनके हृदय को छू ले तो फिर सदा के लिए वे उसके गुलाम बन जाते हैं।... अब मुझे पता चल रहा है कि अन्याय जातियों की अपेक्षा प्रभु ने उन पर अधिक कृपा क्यों की है। वे दृढ़ संकल्प तथा अत्यंत निष्ठावान हैं; साथ ही उनमें हार्दिक सहानुभूति है - बाहर उदासीनता का केवल एक आवरण रहता है। उसको तोड़ देना है, बस फिर तुम्हें अपने पसंद का व्यक्ति मिल जाएगा।'
एक अन्य पत्र में वे लिखते हैं - 'यह तो तुम जानती ही हो कि अंगरेज लोग कितने दृढ़चित्त होते हैं; अन्य जातियों की अपेक्षा उन लोगों में पारस्परिक ईर्ष्या की भावना भी बहुत ही कम होती है और यही कारण है कि उनका प्रभुत्व सारे संसार पर है। दासता के प्रतीक खुशामद से सर्वथा दूर रहकर उन्होंने आज्ञा-पालन, पूर्ण स्वतंत्रता के साथ नियमों के पालन के रहस्य का पता लगा लिया है।
स्वामी विवेकानंद का मात्र 39 वर्ष की उम्र में 4 जुलाई 1902 को उनका निधन हो गया।
शत् शत् नमन